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________________ कषाय-वासना । । (लेखक, श्रीयुत बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय बी. ए.। ) मनुष्यके जीवन कषाय * सबसे नीची और कषाय ( बासना ) का क्षेत्र सबसे नीचा है । बुरी चीज है । इससे नीची और बुरी और कोई उससे नीचा और कोई स्थान नहीं है । उसमें प्रवृत्ति नहीं है । कषायरूपी नरक-कुण्डमें राग, पड़े हुए जीवोंको अनेक कष्टोंको भोगना पड़ता द्वेष, काम, क्रोध, माह, लोभ, मान, माया, द्रोह, है। जिनको अपना हित अभीष्ट है, उन्हें उसमेंमात्सर्य, प्रतीकार,मिथ्या अपवाद, मिथ्या भाषण, से निकलकर ऊपर ऊपर चढ़ना उचित है । उन्नहिंसा, चौर्य, अदया,संदेह, ईर्ष्या आदि दुर्गुणोंका ति-मार्ग कुछ कठिन या दूर नहीं है । बहुत ही बास रहता है । ये दुर्गुण मनुष्यके मनरूपी सहज और पास है. । अपने ऊपर विजय प्राप्त वनमें सदा भ्रमण किया करते हैं । इनके अति- कर लो, अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें करलो रिक्त शोक, दुःख, संताप, पश्चात्तापकी भीषण बस उन्नति-मार्ग मिल जायगा । जिस मनुष्यमेंभयंकर मूर्तियाँ भी मन पर सदा अधिकार से स्वार्थकी गंध निकल गई है, जिसने अपनी जमाये रखती हैं। ऐसे अंधकारमय जगत्के इच्छाओंको वशमें करना और अपने चंचल निवासी वे अज्ञानी जन होते हैं जिन्हें शांतिकी मनपर आधिकार प्राप्त करना शुरू कर दिया है, पवित्रता और परमात्मप्रकाशके परमानंदसे अन- उसने उन्नत्ति मार्गको प्राप्त कर लिया है। भिज्ञता होती है जो सदा उनके ऊपर दैदीप्य- कषाय मनुष्य जातिका शत्रु है, शांतिका मान रहता है परंतु उनके लिए कुछ भी लाभ- घातक है और आनंदका नाशक है । कषायोंके दायक नहीं; कारण कि उनकी दृष्टि उस पर वशीभूत होकर मनुष्य नीचसे नीच और अधनहीं पड़ती, किंतु सदा भूमिकी ओर भौतिक मसे अधम काम करनेपर उतारू हो जाता है । पदार्थो पर लगी रहती है। कषाय दुखका मूल है और पापकी खानि है। ___ हाँ, ज्ञानी पुरुष ऊपरको दृष्टि उठाकर मनुष्यके अतरंगमें स्वार्थकी उत्पत्ति, ईश्वरीय देखते हैं । उन्हें इस कषायरूपी जगतसे नियमोंकी और परमात्मगुणोंकी अज्ञानता और संतोष नहीं होता । वे ऊपरके शांतिमय जगत- शान्त और पवित्र मार्गकी अनभिज्ञताके कारण की ओर चढ़ते हैं। उसका प्रकाश और वैभव पहले होती है। कषाय अंधकाररूप है । इसकी बढ़ती तो उन्हें बहुत दूर मालूम होता है, परंतु ज्यों वहींपर होती है जहाँ ब्रह्मज्ञानका अभाव है । जहाँ ज्यों वे ऊपरको चढ़ते जाते हैं वह निकट और ब्रह्मज्ञान है वहाँ इसका प्रवेश नहीं होसकता। ज्ञानी निकटतर होता जाता है। पुरुषके मनसे अज्ञान अंधकार नष्ट होजाता है। __* कषायसे तात्पर्य यहाँ वासना, मनोविकारसे विशुद्ध हृदयम वासनाका अभाव रहता है। है। अंगरेजीके Passion से जो बोध होता है, कषाय प्रत्येकरूप और प्रत्येक अवस्थामें दु:वही यहाँ कषायसे समझना चाहिए। ख, आपत्ति और अशांतिका कारण है । जिस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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