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________________ कषाय- वासना । प्रकार अग्नि बड़ी बड़ी विशाल इमारतोंको देखते देखते जलाकर राख कर देती है उसी प्रकार कषायकी अग्नि मनुष्योंको भस्म कर देती है और उनके कार्योंको नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है । यदि तुम्हें शांतिकी अभिलाषा है, तो कषायो क्ष कर दो । ज्ञानी पुरुष कषायों को शमन करते हैं, परन्तु मूर्खजन कषायोंके वशीभूत होते हैं । जिन मनुष्योंको ज्ञान और बुद्धिकी चाह होती है, वे मूर्खता और अज्ञानता से दूर रहते हैं । शान्तिका इच्छुक शान्तिके मार्ग - को ग्रहण करता है और ज्यों ज्यों वह उस मार्ग पर बढ़ता जाता है, त्यों त्यों कषाय, दुःख और निराशाके अंधेरे गुप्त स्थानको पीछे छोड़ा जाता है। ज्ञान और शांतिके प्राप्त करनेके लिए मनुयको पहले कषायके स्वरूपको जान लेना उचित है । जिस समय उसका वास्तविक ज्ञान हो जायगा उसी समय से उसको दूर करना और उससे मुक्त होना मनुष्य शुरू कर देगा । देरी उसी समय तक है, जब तक मनुष्य स्वार्थमें लीन है और कषायके आधीन है । Jain Education International २२१ आवश्यकता है। दूसरोंके स्वार्थादि अवगुणोंको दूर कराने की चेष्टामें लगे रहनेसे हम कषायसे रहित नहीं हो सकते; किंतु अपने अवगुणों के दूर करनेसे हमें स्वाधीनताकी प्राप्ति होती है । वही मनुष्य दूसरोंपर विजय प्राप्त कर सकता है, उनको अपने वशमें कर सकता है जिसने अपने ऊपर विजय प्राप्त करली है। ऐसा मनुष्य दूसरोंको कषायसे अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभसे वशमें नहीं करता, किंतु प्रेम और प्रीतिसे करता है I मूर्खजन अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा किया करते हैं; परंतु बुद्धिमान् मनुष्य अपनी निंदा और दूसरोंकी प्रशंसा करते हैं । शांतिमार्ग मनुष्योंके बाहिरी जगतमें नहीं है, किंतु परिवर्तन करानेसे इसकी प्राप्ति नहीं होती, विचारोंके अंतरंग संसारमें है । दूसरोंके कार्यों में किंतु इसकी प्राप्ति अपने निजी कार्योंके विशुद्ध और पवित्र बनाने से होती है । कषाययुक्त मनुष्य प्रायः दूसरोंके सुधारने में लगा रहता है, परंतु ज्ञानी पुरुष अपनेको सुधारनेकी धुन में रहता है । संसारको सुधारने के लिए पहले अपने आपको सुधारना आवश्यक है। अपना सुधार केवल विषयवासनाओंके दूर करने पर ही समाप्त नहीं हो जाता, किंतु तनिक भी अंश है तथा स्वार्थका सर्वनाश इसके लिए उस प्रत्येक विचारका - जिसमें मानका कर देना होता है । इससे ऊँचे चढ़कर पूर्ण विशुद्धता से पहले एक प्रकारका शय और होता है, उसे भी दूर करना जरूरी है । कषायसे केवल यही नहीं होता, कि मनुष्य क्रोधी अथवा लोभी होता है, किंतु उसके वशीभूत हुआ मनुष्य अपने उच्च और दूसरोंको तुच्छ समझने लगता है । दूसरोंमें सदा अवगुण निकाला करता है और उन्हें स्वार्थी और मायावी बताया करता है । दूसरोंकी निंदा करने से, दूसरोंको स्वार्थी बनानेसे मनुष्य अपने स्वार्थको नहीं त्याग सकता । स्वार्थसे बचनेके लिए अपने आपको पवित्र करना मनुष्यका काम मनुष्यका जीवन एक प्रकारका पहाड़ है। है। दूसरों पर दोषारोपण करनेसे शांतिमार्ग- जिसकी तलहटी कषाय है और शान्ति चोटी की प्राप्ति नहीं हो सकती । शांतिमार्गके लिए है । कषायको घटाता घटाता ही मनुष्य शास्वार्थत्याग, इंद्रिय-दमन और आत्मसंयमकी न्तिके उच्च शिखिर पर चढ़ सकता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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