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स्वभावके साथ अपना स्वभाव न मिले और वह बना सकता है वह सर्वदा प्रसन्नताका अनुभव कदाचित् अपनी शक्ति भर हमको दुःख पहुँचावे, करने के लिए, भाग्यशाली होता है । जिस प्रकार उस समय भी विवेकपूर्वक यदि हम अपने मनको अपनेको दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार प्राणी उत्तम प्रकारसे समाधान कर सकें तो उस दुःखका मात्रको दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा समझकर बुरा असर होनेके बदले हमको सुखका अनुभव बुद्धिमान् पुरुष किसी भी प्राणीको दुःख नहीं होगा। कोई भी मनुष्य, जो अपने मनमें सच्चा देता और अपनी सामर्थ्यानुसार सब प्राणियोंविवेक रखता है, उसे इस पृथ्वीपर लेश मात्र भी को सुख हो ऐसे विचार और प्रवृत्तिका सेवन दुःखकी प्रतीति होना सम्भव नहीं है। इसके करता है। विपरीत यदि उसके मनमें सच्चे विवेकका अभाव यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि, इस हो तो उसको प्राप्त हुए सुखमें भी दु:खका भान संसारमें, प्रायः सब मनुष्योंको न्यूनाधिक होना सम्भव है । वस्तुओंकी ऐसी दशा होनेसे दुःख भोगना पड़ता है। किसी भी प्रकारका हमें सर्वदा उत्तम सहवासमें रहना चाहिए, दुःख आनेपर मनुष्यको अपने मनमें ग्लानि अवकाशके अनुसार उत्तम पुस्तकाका श्रवण, व चिन्ता न लानी चाहिए; और न किसीके पठन तथा मनन करना चाहिए और सर्वदा साम्हने इस सम्बन्धमें विलाप करना चाहिए । शुभ विचार करके, अपने हृदयमें सच्चे और अपनी मन्दप्रारब्धसे जो दुःख आपड़े, उसको उच्च प्रकारके ज्ञानकी वृद्धि करना चाहिए। प्रसन्न मनसे सहन करनेकी आदत डालना ऊँचे ज्ञानकी वृद्धि होनेसे हमको प्रत्येक प्रतिकूल चाहिए। ऐसा स्वभाव बनानेसे लौकिक कार्योमें प्रसंगमें सहनशील होने तथा प्रसन्न रहनेका बल भी वाधा नहीं पड़ती और पारलौकिकमें भी प्राप्त होगा । जिस मनुष्यको परमात्माको प्रसन्न उन्नति होती है। चिन्ता और विलाप मनुष्यके तन करनेकी इच्छा हो, उसे प्रत्येक प्राणीके हृद- और मन दोनोंकी शक्तिको क्षीण करते हैं। यमें परमात्माका वास है, ऐसा विचार कर, यह कदापि न भूलना चाहिए कि आये हुए दुःखनिर्दोष मार्गपर चलके, सब प्राणियोंको प्रसन्न की निवृत्तिके लिए सज्जन लोग जो जो उपाय करनेका प्रयत्न करना चाहिए । परमात्माकी बतावें अथवा जो निर्दोष उपाय अपने मनमें कृपा सम्पादन करनेके इच्छुकको तो कीड़े उत्पन्न हों उनको कार्यमें परिणत करनेमें कोई मकोड़े सदृश क्षुद्र प्राणियोंपर भी विशुद्ध प्रीति- हानि नहीं है । जैसे, उस प्रसंग पर सुपात्रको, रखना चाहिए, फिर सब मनुष्योंपर और विशे- यथाशक्ति दान देना, अथवा परम पवित्र परषकर अपने सम्बन्धियों तथा इष्ट मित्रोंपर सच्चा मात्माका ध्यान या स्मरण करना बहुत लाभदाप्रेम करना चाहिए, इसमें तो कहना ही क्या है ? यक है। अपत्ति पड़ने पर शोकसे आपघात
विवेकी मनुष्यको अपना हृदय संकीर्ण न करनेका विचार करना मनकी निर्बलता है। रखकर जितना हो सके उतना उसे विशाल मनमें आपघात करनेके विचार मात्रसे पापबनानेका प्रयत्न करना चाहिए, अर्थात् सब का बन्ध होता है । इसलिए ऐसे समय सत्संजगत् अपने स्वरूपके एक स्थानमें समा जाय गमें रहकर, आपघातका विचार ही मनमें न इतनी विशालता हमको अपने हृदयकी करना आने देना चाहिए । दुःखके समय मनुष्य धैर्य चाहिए । जो मनुष्य अपने हृदयको इतना बृहत् न रखके आत्मघात करता है, परन्तु उसे स्म
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