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________________ सहनशीलता और प्रेम। (ले०–श्रीयुत बाबू भैयालालजी जैन।) कोई भी मनुष्य जो अपने जीवनको इस जड़ तथा डाली काटते हैं; उनकी छाल निकासंसारमें, सुखमय करना चाहता हो और अपना लते हैं, तथा उनके ऊपर चढ़कर फल और वर्तमान शरीर छोड़नेके पश्चात् अपने जीवात्माको फूलोंको तोड़ते हैं । किन्तु वे वृक्ष उनपर न तो सुखी बनाना चाहता हो, उसे अपने निकट तथा लेश मात्र क्रोध करते हैं और न बैर ही बाँधदूरके सम्बन्धियोंकी ओरसे, अपने पड़ोसियोंकी नेका प्रयत्न करते हैं-सब दुःखोंको प्रसन्न मनसे ओरसे तथा अन्य परिचित या अपरिचित सहन करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु वे ही लोग लोगोंकी ओरसे, अपने मन्द प्रारब्धकर्मके उद- यदि धूपसे संतप्त हो उनकी छायामें बैठने आते हैं यसे जो दुःख आ पड़ें उन्हें चिन्ता या विलाप तो बिना किसी प्रकारकी आना-कानी किये किये बिना प्रसन्न मनसे सहन करनेका स्वभाव बैठने देते हैं और अपनी छायाकी शीतलतासे डालना चाहिए । इतना ही नहीं किन्तु जो उनके शरीरकी संतप्तताको दूर करते हैं। अपनेको योग्य कारणके बिना ही दुःख देता हो जो वृक्षको पत्थर या लकड़ी मारता है, उसे न तो उससे द्वेष करना चाहिए और न बैर वह उल्टा फल फूल देता है। पत्थर, धातु बाँधना चाहिए; न उसे शाप देना चाहिए और अथवा रत्नोंके लिए कई लोग पर्वतको खोदते हैं; न किसीके समक्ष उसकी निन्दा करनी चाहिए। परन्तु वह उन खोदनेवाले लोगोंपर क्रोध न मनुष्योंका एक बड़ा भाग अज्ञानवश होनेके करके उल्टा उन्हें उनकी इच्छित वस्तयें कारण भूलका पात्र है । जो दुःख मिलता है, देकर सन्तोष करता है । पृथ्वीपर लोग कई अपवह अपने पूर्वके कोई दुष्कर्मोंके फलरूप प्राप्त वित्र वस्तुयें डालते हैं तथा स्वार्थवश होकर, स्थान होता है । ऐसा समझ कर अपनेको जो दुःख स्थान पर उसका छेदन भेदन करते हैं, किन्तु वह देता हो, उसपर मनमें किसी प्रकारका खेद न उनपर किसी प्रकारका क्रोध नहीं करती वरन् लाकर, विशुद्ध प्रीति रखना चाहिए । इस संसा- उन्हें अमूल्य पदार्थ देकर प्रसन्न होती है । देखो, रमें सब प्रकारसे सुखी कोई भी नहीं है । सब वृक्षादि जड़ कहलानेवाले पदार्थोंमें कितनी भारी मनुष्योंको दुःख भोगना ही पड़ता है । इसलिए सहनशीलता है ! अपकार करनेवालोंके ऊपर दुःखके समय मनुष्य ऊपर कहे गये दो शुभ भी उनकी कितनी भारी प्रीति रहती है !! गुणोंका आचारण करे तो वह दु:खमें भी सुख कहावत है कि “जितनी आकृतियाँ उतनी और शान्तिका अनुभव कर सकता है। प्रकृतियाँ।" इस लिए इस जगत्में अपने ही सुखी होनेके लिए मनुष्यको पर्वतों तथा समान सबका स्वभाव हो, यह सम्भव नहीं है । पृथ्वीकी स्थितिका विवेकपूर्वक अवलोकन करके जिस प्रकार अपनी मुखाकृति पूर्णतया किसीसे उनके धैर्यका सावधानीसे अनुसरण करना चाहिए। नहीं मिलती, उसी प्रकार अपना स्वभाव भी कितने मनुष्य अपने प्रयोजनके लिए वृक्षोंकी सर्वाशमें किसीसे मिलना सम्भव नहीं है। जिसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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