SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ योंके पुत्रोंने, निज पुत्रों और अन्य बन्धुवर्ग तथा विद्वानोंने उनसे प्रीतिपूर्वक यह प्रार्थना की कि, ' हे आयुष्मन् सर्वशास्त्रविशारदसूरे ! आप एक उत्तम पंचकल्याके विस्तारको लिये हुए प्रतिष्ठाशास्त्र की रचना करो।' इस प्रार्थनाको सुनकर और जिनेंद्रकी भक्ति से प्रेरित होकर नेमिचंद्रने यह ' प्रतिष्ठातिलक' नामका प्रतिष्ठाशास्त्र बनाया है । यथा: जैनहितैषी - अथ यो नेमिचंद्रार्यः शास्त्रं वेत्यखिलं स्फुटं । व्याखाति शास्त्रमर्थिभ्यो यः सदा धर्मकाम्यया ॥ ३२॥ सत्यशासनपरीक्षा मुख्यप्रकरणादिकं । यस्तु शास्त्रं विरचय द्विश्वविद्वज्जनस्तुतं ॥ ३३ ॥ नृपास्थानेषु तर्केषु कर्कशान्प्रतिवादिनः । निर्जित्य बहुशोयस्तु जैनं प्राभावयन्मतं ॥ ३४ ॥ यो नृपाद्यतान्दोलशिबिका छत्रवैभवः । यो ददात्यर्थमर्थिभ्यो Jain Education International श्री पार्श्वनाथपादाब्जसेवावा मानसः । मातुलः स्वस्य तत्पुत्राः पितृव्याश्च सहोदराः ॥ ३८ ॥ तत्पुत्राश्च स्वपुत्राश्च rain विपश्चितः । कदाचित्प्रार्थयन्तेस्म तमेनं प्रीतिमानसः ॥ ३९॥ आयुष्मन् श्रणु भोः सूरे सर्वशास्त्रविशारद । प्रतिष्ठाशास्त्रमेकं सत् पंचकल्याणविस्तरं ॥ ४० ॥ विरच्यतामिति ततो जिनभक्तया च चोदितः । सः चाहं नेमिचंद्राख्यो निभिणोमि स्वशक्तितः ॥ ४१ ॥ प्रतिष्ठातिलकं नाम प्रतिष्ठाशास्त्रमुत्तमं शास्त्रेऽत्र स्खलितं यन्मे तद्बुधाः क्षन्तुमर्हत ॥ ४२ ॥ ऊपरके इस संपूर्ण परिचय से इस विषय में कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह प्रतिठापाठ गोम्मटसारके कर्ता उन नेमिचंद्र भुंक्ते भोगान्स्वबन्धुभिः ॥ ३५ ॥ सिद्धान्त चक्रवर्तीका बनाया हुआ नहीं है अकारयच्च यो जैन धाममंडपवीथिकाः । गीतं ( नृत्यं च ) वाद्यं च पार्श्वशाग्रे नियोजयत् ॥ ३६ ॥ एवं यो धर्मकामार्थ जो मुनि थे और विक्रमकी ११ वीं शताब्दिमें हुए हैं। बल्कि इसके कर्ता नेमिचंद्र एक गृहस्थ थे और वे कवि हस्तिमल्लसे भी, जो विक्रमकी १३ वीँ ँ शताब्दि के अन्त में हुए हैं, कई शताब्दि पीछे के विद्वान् हैं और इस लिए मेरी रायमें - यह ग्रंथ लगभग १६ वीं शताब्दिका बना हुआ है । त्रिवर्गश्री विराजितः । आस्ते स्थिरकदम्बाख्यनगरे राजपूजितः ॥ ३७ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy