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________________ HAIRATIONAIRY इतिहास-प्रसंग। Pimprimantritimum १९७ महाविद्वान्ब्रह्ममूरिः महोपाध्यायसन्निधौ ॥ २९ ॥ पार्श्वनाथ इति त्रयः ॥ २५॥ पदवाक्यप्रमाणदेवेन्द्रके आर्यदेवीसे तीन पुत्र उत्पन्न रूढिं वाढमुपागतः। हुए;-१ आदिनाथ, २ नेमिचंद्र और पुत्रौद्वौ तस्य कल्याण३ विजयप । आदिनाथ नामका पुत्र नाथाख्यो धर्मशेखरः ॥ ३० ॥ समस्त जैनसंहिताशास्त्रोंका पारगामी था इति तत्रादिमः सर्वऔर उसके यहाँ त्रैलोक्यनाथ तथा जिन शास्त्रवाराशिपारगः। चंद्रादिनामके पुत्रों का जन्म हुआ। विजयप द्वितीयस्तदीयोभूनामका पुत्र ज्योतिषादि शास्त्रों में निपण था ___ च्छास्त्रेषु सकलेष्वपि ॥ ३१॥ और उसका पुत्रः समन्तभद्र साहित्यका । इसके बाद ग्रंथकर्ता नेमिचन्द्रने, अपना प्रेमी हुआ । नेमिचंद्र नामका पुत्र ( विवादस्थ कुछ विशेष परिचय देते हुए, ग्रंथ बननेका प्रतिष्ठापाठका कर्ता ) अभयचन्द्र नामके सम्बंध प्रगट किया है, जिससे मालूम होता महोपाध्यायसे तर्क, व्याकरण और आगमको है कि नेमिचंद्र सदा धर्मार्थियोंको शास्त्रका पढ़कर एक प्रसिद्ध विद्वान् हुआ । उसके व्याख्यान किया करते थे; उन्होंने सत्यकल्याणनाथ और धर्मशेखर नामके दो शासनपरीक्षा आदि ग्रंथोंकी रचना की पुत्र उत्पन्न हुए, जिन दोनोंको ही शास्त्र. थी, राजसभाओंमें अनेक प्रतिवादी नैयायिकोंसमुद्रके पारगामी लिखा है । यथाः-- को जीतकर वे जैनधर्मकी बहुत कुछ प्रभातद्देवेन्द्रार्यदेव्याख्य वना करनेमें समर्थ हुए थे; उन्हें राजादिदम्पत्योरादिनाथकः । कोंके द्वारा आन्दोला, शिविका ( पालकी ) नेमिचंद्रो विजय इति और छत्ररूपी वैभवकी प्राप्ति हुई थी; वे पुत्रास्त्रयोऽभवन् ॥२६॥ याचकोंको दान देते हुए अपने बन्धुवर्गतत्रादिनाथः सवोह सहित भोगोंको भोगते थे, उन्होंने जैनत्संहिताशास्त्रपारंगः। मंदिर, मंडप और वीथियाँ बनबाई थीं तत्पुत्रात्रैलोक्यनाथ और श्रीपार्श्वनाथभगवानके आगे गाने बजाने जिनचंद्रादयो बुधाः ॥ २७॥ आदिका सामान जोड़ा था । इस प्रकार धीमान्विजयपाख्यस्तु नेमिचंद धर्म, अर्थ और कामरूपी ज्योतिःशास्त्रादिकोविदः। त्रिवर्ग-लक्ष्मीसे शोभित थे और राजाके समन्तभद्रस्तुतत्पुत्रः द्वारा सन्मानित हुए स्थिरकदम्ब नामके साहित्यरससान्द्रधीः ॥ २८॥ नगरमें रहते थे। एक समय उनके मामा धीधना नेमिचंद्रस्तु ( संभवतः पार्श्वनाथ ) ने जो कि पार्श्वनाथ तर्कव्याकरणागमान् । भगवानका दृढ़ भक्त था, मामाके पुत्रोंने, अधीत्याभयचन्द्राख्य - पिताके भाइयोंने, स्वकीय भाइयोंने, भाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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