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जैनहितैषी -
कालमें हम चाहे जो रहे हों, उस समय कि इस लेखमें केवल एक ही बात पर विचार किया जाय । जैनसमाजमें कितने मनुष्य हैं ? वे घट रहे हैं या बढ़ रहे हैं ? घटीके कारण क्या हैं ? क्या उपाय हो सकते हैं कि जिनसे वे कारण दूर किये जा सकें ! इत्यादि प्रश्नोंका ही उत्तर देना इस लेखका उद्देश्य है ।
जैनोंकी संख्या दिन प्रतिदिन घट रही है । यह बात प्रायः सबको ज्ञात है और इसे जान लेनेके लिए अधिक परिश्रमकी भी आवश्यकता नहीं । सन् १९११ की मनुष्यगणनामें उनकी संख्या १२, ४८, १८२ पाई गई थी। कुछ शताब्दियों पहले कहा जाता है कि प्रायः सारा संसार जैनधर्मानुयायी था । खैर, इतनी पुरानी बातसे घट बढ़का अंदाजा करना उचित नहीं; परन्तु सन् १९०१ और १८९१ के अंकों से वर्तमान संख्याको तुलना करना कोई अनुचित बात न होगी ।
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हमारा ज्ञान, हमारा बल, हमारा ऐश्वर्य चाहे कितना ही अधिक क्यों न रहा हो इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि आज हमारी दशा बहुत ही गिरी हुई है-आज हमारी गणना संसारकी उन्नत जातियों में न सही, साधारण जातियोंमें भी नहीं है हमारा नाम लेते ही सबसे पिछड़ी हुई जातियोंका ध्यान आता है । अपने पूर्ववैभवको याद करके तो हमें कुछ लज्जा आजानी चाहिए ! क्या हम उसी जैनधर्मके अनुयी हैं ? क्या उसी जैनजातिकी सन्तान हैं क्या हम इस योग्य हैं कि जैन कहलावें ? उन पिछले दिनोंके ध्यानसे तो हममें यह इच्छा उत्पन्न हेनी चाहिए कि जरा वर्त - मान दशा पर विचार करें और वे उपाय ढूँढें कि जिनसे हम पुनः अपने वास्तविक स्थान पर -- उस उच्च आदर्श पर पहुँच सकें । यही नहीं - यह बात तो ऐसी है कि जिसके कारण हमारे हृदयोंमें ऐसा उत्साह भर जाना चाहिए कि तन मन धनसे ऐसा प्रयत्न करें कि जिसमें हमारी सब त्रुटियाँ दूर हो जायँ, संसारकी जातियों में हमारी भी कुछ पूछ हो ।
इससे स्पष्ट होता है कि १९०१-१९११ में ६.४ प्रतिशत और १८९१-१९०१ में ५.८ प्रतिशत जैन घट गये । किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इन्हीं वर्षों में समस्त भारतवर्षकी जनसंख्या घटी नहीं है वरन् बहुत बढ़ी है । १८९१-१९०१ में ९ प्रतिशत और १९०१-१९११ में गया है ११.८ प्रतिशत ।
कुछ ऐसे ही विचारसे यहाँ जैनोंकी वर्तमान दशाका विचार करने का इरादा किया गया है; किन्तु एक ही लेखमें इस सम्बन्धी सब बातोंका उल्लेख करना सम्भव नहीं, इस कारण यही ठीक समझा
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