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बारहवाँ भाग । अंक ४-५.
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
రంజిల్లా
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जैनहितैषी ।
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కనికరిస్తూ కనబడు
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सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहें सत्यके साँचे स्वरूप- गवेषी ॥ वैर विरोध न हो मतभेदतें, हों सबके सब बन्धु शुभैषी । भारत के हित को समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ J2SEIDSPAÐSTÆÐSYN:
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जैनधर्म और जैनजातिके भविष्यपर
एक दृष्टि
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लेखक, श्रीयुत बाबू निहालकरणजी सेठी एम. एस. सी । अनादि है, यह बात
चैत्र वैशाख २४४२. अप्रैल, मई १९१६.
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जैनधर्म हम लोग बहुत अभिमान के साथ कहते आये हैं; किन्तु जनसाधारण इसका विश्वास नहीं करते थे और न हममें इतनी सामर्थ्य - ही थी कि इसको प्रमाणित कर देते । खैर, हमारे सौभाग्यसे कुछ पाश्चात्य विद्वानोंका प्यान इस ओर गया और उन्होंने प्रमाण ढूँढ निकाले; जिनका परिणाम यह हुआ कि आज सब कोई यह बात मानते हैं कि जैनधर्म वास्तव में बहुत ही प्राचीन और
किन्तु इस पिछले गौरवसे हममें यह भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए कि दूसरे धर्म, और दूसरी जातियाँ जो हमारी अपेक्षा बहुत आधुनिक हैं- इस योग्य ही नहीं कि हम उनसे कुछ सीख सकें। क्योंकि अतीत
* लेखक महाशय इस लेखको पहले इलाहाबाद के लीडर में और अँगरेजी जैनगजटमें प्रकाशित करा चुके हैं ।
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स्वतंत्र धर्म है और यह अनेक शताब्दियोंकी सहयोगिता और अत्याचारों के होने पर भी आज तक जीवित है । इस बात से कौन ऐसा जैनधर्मानुयायी है जिसका हृदय आनंद से परिपूर्ण न हो जावे ।
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