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________________ उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला और षष्ठिशतप्रकरण। . १७७ wwwwwwwww ही नाहीं । तो कैसे हैं, जिनराज ही हैं इष्ट जिनके, ऐसे हैं, भावार्थ-जिनभाषित धर्मके धारी हैं, केवल नग्न परमहंसादिककी ज्यों नाहीं । इहां कोई कहे जो अबार इस क्षेत्रमें मुनि तौ दीसते नाहीं, इहां कैसे कहे ? ताका उत्तर-जो तुमारी ही अपेक्षा तौ वचन नाहीं, वचन तौ सबनिकी अपेक्षा है, सो कोईनके प्रत्यक्ष होयहीगे । जातें दक्षिण दिशामें अबार भी मुनिनका सद्भाव शास्त्रमें कह्या है ॥ १०७ ॥ जिनराज है इष्ट जिनके ऐसे निर्ग्रन्थ गुरुका उपदेश होत संतें भी कैई जीवनिके सम्यक्त हुलसायमान न होय है। अथवा सूर्यका तेन घूघूनिका अंधपना कैसे हरै ? नाही हरै। ॥ १०८॥" . __ इसमें एक जगह · जिनवल्लभ'का अर्थ “ जिनराज' और शेष दो जगह 'जिनराज हैं इष्ट जिनके ऐसे' किया है; परन्तु साफ मालूम होता है कि ये अर्थ खींचतानके जबर्दस्ती किये गये हैंवास्तवमें ठीक नहीं हैं। उक्त गाथाओंके सिवाय नीचे लिखी दो गाथाओंपर भी विचार कीजिए: सिरिधम्मदासगणिणा रइयं उवएसमालसिद्धतं । सब्वे वि समण सदा मणति पढेति पादति ॥ ९६ ॥ त चेव के अहमा छलिया अइमाणमोहभूएण । किरियाए हीलंता हा हा दुक्खाइ ण गणंति ॥ ९७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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