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________________ जैनहितैषी - 1 केsपि कियन्तोऽपि । परं जिनवल्लभसदृशः पुनरपि जिनवलम एव । स हि श्रीजिनेश्वराचार्यदीक्षितोऽपि चैत्यकावासं सकटुविपाकं मत्वा संवेगात्सुविहितशिरोमणि श्रीमद्भयदेवसूरिपार्श्वसुपसम्पन्न इति । वचनात्सुगुरु जिनवल्लभस्यापि केषांचित्सम्यक्त्वं नोल्लसति । अत्र दृष्टान्तमाह । अथेति पक्षान्तरे दिनमणितेज उल्लूकामानामन्धत्वं कथं केन प्रकारेण हरति ॥ " इस टीकासे इतनी बात और भी मालूम हो जाती है कि जिनवल्लभसूरि पहले जिनेश्वराचार्य के दीक्षित थे; परन्तु पीछे साधुओंका मन्दिर में रहना बुरा समझकर अभयदेवसूरिके शिष्य हो गये थे । इतिहाससे पता लगता है कि ये अभयदेव अच्छे विद्वान् थे, इन्होंने वि० संवत् ११२० से १९२८ तकके समय में स्थानांग - सूत्र आदि नौ ग्रन्थोंकी टीकायें लिखी थीं । उक्त १०६ - १०८ नम्बरकी गाथाओं में ' जिनवल्लभ' शब्द तीन बार आया है और वह इतना स्पष्ट है कि उसका दूसरा अर्थ बिना जबर्दस्तीके बन ही नहीं सकता । निश्चयपूर्वक वह एक आचार्यकी प्रशंसा करनेके लिए आया है जो कि ग्रन्थकर्ताक दृष्टिमें शिथिलाचारी चैत्यवासी न होकर आदर्श साधु या मुनि थे । उपदेश सि० रत्नमालामें ये गाथायें ज्योंकी त्यों हैं; परन्तु उनका अर्थ पं० भागचन्द्रजीने इस प्रकार किया है: 1 66 1 “ अबार भी कैई गुणवान् निर्दोष गुरू दीसें हैं । कैसे हैं ते, जिनराज समान हैं, नग्न मुद्राके धारी हैं । बहरि केवल बाह्य लिंग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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