________________
उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला और षष्ठिशतप्रकरण।
७५
कवट १० वर्षको अवस्थाम खेडानगरमें इन्होंने दीक्षा ले ली थी ! इस प्रकार नमिचन्द्र भण्डारीके गुरु जिनपतिसूरि और पुत्र जिनेअरमरिका समय निर्णीत होनेसे निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वे विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिके विद्वान् हैं।
यहाँ यह शङ्का की जा सकती है कि उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला दिगम्बर ग्रन्थ ही है; क्या आश्चर्य है जो भण्डारीने ही उसे अपना बना लिया हो । परन्तु इसका समाधान स्वयं उपदेशसिद्धातरत्नमाला ही कर देती है । रत्नमालाकी १०७-०८ नम्बरकी मायाओंको आप ध्यानसे पढ़िए:
अजवि गुरुणो गुणिणो सुद्धा दीसंति तडयडा केई । पर जिणवल्लहसरिसो पुण्णो वि जिणवलहो चेव ॥ १०७॥ बघणे वि सुगुरु जिणवल्लहस्स केसिं ण उल्लसई सम्म ।
अह कह दिनमणितेयं उलुयाणं हरइ अंधत्तं ॥ १०८ ॥ इनका अर्थ यह है कि "आजकल भी कितने ही गुणी और शुद्ध मरूपणा करनेवाले गुरु साक्षात् दिखलाई देते हैं, परन्तु जिनवल्लभके समान तो जिनवल्लभसूरि ही हैं. अर्थात् इस विषयमें उनकी बराबरी करनेवाला कोई नहीं है । परन्तु जिनवल्लभके वचनोंसे भी जो किसी किसीको सम्यक्त्व उल्लसित नहीं होता है, सो इसमें उनका दोष नहीं। क्या सूर्यका तेज उल्लुओंका अन्धापन दूर कर सकता है?"
संस्कृतटीकाकार भी इसका यही अर्थ करते हैं:"अस्मिन्नपि काले गुरयो गुणिनो ज्ञानादियुक्ताः शुद्धाः शुद्धप्ररूपकाः साक्षाद्वीक्ष्यन्ते, तडयडेति देश्यत्वाकियाकठोराः,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org