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________________ ६७४ जैनहितैषी पढ़नेसे इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं रहता है। वे जिनपतिसरि नामक प्रसिद्ध आचार्यके शिष्य थे जिन्होंने कि जिनवमल्लसरिके संघपट्टककी विशाल संस्कृत टीका लिखी है । वे 'सज्जन' के पुत्र और जिनेश्वरसूरि नामक आचार्यके पिता थे, अर्थात् उनका एक पुत्र दीक्षित होकर पीछे आचार्यपदको प्राप्त हो गया था । टीकाकी उत्थानिका और अन्तिम गाथाकी टीकासे इन बातोंका पता लगता है:__"इह प्राप्तसकलमानुष्यादिसामग्री केन पुंसा ज्ञातचारित्राधार. भूते श्रीसम्यक्त्व एव प्राक्प्रयतितव्यमित्याकलय्य नेमिचन्द्रनामा श्रावकस्तदुपदेष्ट्रगीतार्थसंविमगुरुं परीक्ष्यन् चिरस्य परिभ्रम्य तत्कालवर्तिसंविग्नगीतार्थमुनिजनाग्रगण्यं श्रीजिनपतिसूरिसुगुरुं लब्धवान् । ततस्तेभ्यो ज्ञातशुद्धदेवादितत्त्वः परांश्च देवादितत्त्वेषु दृढयन्निदं प्रकरणं चक्रे ।". अन्तिमगाथा-" एवं पूर्वोक्तयुक्त्या भाण्डागारिकः स चासौ नेमिचन्द्रश्च सज्जनसुतः श्रीजिनेश्वरसूरिपिता च तेन रचिता कतिचिद्गाथा..." खरतरगच्छकी पट्टावलीके देखनेसे मालूम होता है कि जिनपतिसूरि ४६ वें पट्टके आचार्य थे। विक्रमसंवत् १२२३ में उन्हें आचार्यपद मिला था और संवत् १२७७ में पालणपुरमें उनका स्वर्गवास हुआ था । इनके पट्ट पर जिनेश्वरसूरि संवत् १२७८ में बैठे थे । ये ही जिनेश्वरसूरि नेमिचन्द्र भण्डारीके पुत्र थे । पट्टावलीमें लिखा है कि इनका मूल नाम अम्बड़, पिताका नाम नेमिचन्द्र भाण्डागारिक और माताका लक्ष्मी था। इनका जन्म मारोठमें संवत् १२४५ की मार्गशीर्ष सुदी ११ को हुआ था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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