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उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला और षष्ठिशतप्रकरण। ६७३ wommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm - अब मैं षष्ठिशतप्रकरणकी खोज करने लगा, क्योंकि इस ग्रन्थके मिले बिना उक्त सन्देह दूर नहीं हो सकता था । __ अभी पर्युषण पर्वमें मैं एकदिन बम्बईकी "मुनि मोहनलालजी जैन सेन्ट्रल लायब्रेरी' को देखनेके लिए गया था कि अचानक उसका सूचीपत्र देखते समय मेरी दृष्टि षष्ठिशतप्रकरण पर जा पड़ी और मुझे उक्त लायब्रेरीमें इसकी दो प्रतियाँ प्राप्त हो गई। ये दोनों ही प्रतियाँ सावरि या सटीक हैं । टीका धवलचन्द्र गुरुके किसी शिष्य महाशयकी लिखी हुई है। पहली प्रति जीर्ण और प्राचीन है, लगभग ३०० वर्ष पहलेकी लिखी हुई जान पड़ती है। दूसरी प्रति हालकी ही है, संभवतः पहली परसे ही नकल कराई गई है। इन प्रतियोंसे मुझे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा कि नेमिचन्द्र भण्डारी श्वेताम्बरी थे और उनका षष्ठिशत प्रकरण ही हमारे यहाँ उपदेशसिद्धान्तरत्नमालाके नामसे प्रचलित हो रहा है।
नेमिचन्द्र भण्डारी ओसवाल जातिके श्वेताम्बर जैन थे। उनका ' भण्डारी' उपपद बतला रहा है कि वे ओसवाल थे। छपी हुई उपदेशसिद्धान्तरत्नमालाके टाइटिलपेजपर उनके नामके साथ 'आचार्य' पद जोड़ा गया है; परन्तु यह भूल है-वे श्रावक थे । उपदेशसि० र० की १५६ वी गाथाको
१ स्वस्मृतिबीजकमेतत् षष्ठीशतप्रकरणस्य सद्वृतेः । . अलिखल्लेखकवदयं शिष्यः श्रीधवलचन्द्रगुरोः ॥
२जइ विहु उत्तमसावय-पयडीए चडणकरणअसमत्थो। - तहवि पहुवयणकरणे मणोरहो मज्झ हिययम्मि ॥१५६ ॥
अर्थात् यद्यपि मैं उत्तम श्रावककी पैढीपर चढ़नेको असमर्थ हूँ, तथापि जिनवचनके करनेमें मेरे हृदयमें मनोरथ वर्ते है ।
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