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________________ -६७८ जैनहितैषी इनका अर्थ यह है कि " श्रीधर्मदास गणिका रचा हुआ ' उपदेशमाला' नामका सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसको सारे श्रमण (मुनि) और श्राद्ध (श्रावक ) मानते हैं, पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं; परन्तु उसकी भी अभिमान और मोह भूप (राजा) के द्वारा छले गये कितने ही अधम लोग अपनी क्रिया-आचरणमें अवहेलना करते हैं और खेद है कि नरकादिके दुःखोंको कुछ भी नहीं गिनते हैं।" __ ये धर्मदास गणि श्वेताम्बरसम्प्रदायमें बहुत ही प्रसिद्ध हैं और प्राचीन हैं । इनका बनाया हुआ उपदेशमाला ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध और प्रचलित ग्रन्थ है । नेमिचन्द्र भण्डारी उक्त गाथाओंमें इसी ग्रन्थका उल्लेख करते हैं और खेद प्रकट करते हैं कि बहुतसे नीच साधु इतने माननीय ग्रन्थकी भी अवहेलना करते हैं-उसके अनुसार नहीं चलते हैं । इससे भी साफ मालूम होता है कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदायका है। ____पं० भागचन्द्रनीने इन गाथाओंका भी गोलमाल अर्थ किया है । वे कहते हैं-" श्रीधर्मदास आचार्य () करि उपदेशनि की है माला जा विर्षे ऐसा सिद्धान्त यहु रच्या है, ताहि सर्व ही मुनि वा श्रावक माने हैं पढ़े हैं पढावे हैं । भावार्थ, यह उपदेश आगें धर्मदास आचार्यने रच्या है सो ही मैंने कह्या कछू कपोलकल्पित नाहीं ॥ ९६ ॥ बहुरि ताही शास्त्रकों केई अधम मिथ्यादृष्टी हैं ते आचरणविषं निन्दा करे हैं ॥९७॥" पर यह अर्थ ठीक नहीं है। ___पं० भागचन्दनीकी उक्त ९६ वी गाथाकी टकिासे मालूम होता है कि उन्होंने इसी गाथाका यथार्थ अभिप्राय न समझकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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