SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५६ . जैनहितैषी पहुँचता जा रहा है। वह कभीका बुझ गया होता, परन्तु एक तो समाजका एक बहुत बड़ा भाग अज्ञानके गढ़हेसे निकलनेकी कोशिश ही नहीं करता है और दूसरे बीच बीचमें कुछ भट्टारक भी ऐसे होते रहे हैं जो इस पदकी इज्जतको बहुत कुछ बचाये रहे हैं, इस लिए वह अब भी टिमटिमा रहा है। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि अब बहुत दिनोंतक न टिक सकेगा-उसका स्नेह निःशेष हो चुका है और बर्तिका भी नष्ट हो चुकी है। हमारी समझमें अब उसकी जरूरत भी नहीं है। एक प्रतिष्ठित पदकी दिल्लगी करानेके लिए टिमटिमाते रहनेकी अपेक्षा तो उसका बुझ जाना ही अच्छा है। ४-भट्टारक विजयकीर्तिकी सुकीर्ति। हितैषीके पाठक ब्रह्मचारी मोतीलालके शुभनामको भूले न होंगे। आजकल आपके बड़े ठाठवाट हैं-आपके सुखसौभाग्यका सूर्य इस समय मध्याह्न पर पहुँचा हुआ है। अब आप मोतीलाल नहीं, किन्तु श्री १०८ भट्टारक विजयकीर्तिनी महाराज कहलाते हैं । आपके साथ इस समय गाड़ी, घोड़ा, पालकी आदि सारे राजोचित साजबान हैं। शास्त्री, चपरासी, हवालदार, रसोइया, नाई, धोबी, खिदमतगार आदि २०-२५ नौकर चाकर हैं । जरी और मखमलके वस्त्रोंका उपयोग करके आप अपने पूर्वनिर्ग्रन्थोंकी दरिद्रताके दोषको दूर कर रहे हैं। आपका प्रतिदिनका खर्च सिर्फ २५-३० पचीस तीस रुपया रोज है ! इस समय आप बाकरोल नामक ग्राममें आनन्द कर रहे हैं और शायद चातुर्मास भर वहीं रहेंगे । ग्राममें. जैन भाइयोंके सिर्फ ३० घर हैं, जिनकी आर्थिक अवस्था बहुत मामूली है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy