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________________ जैनहितैषी कर लिया कि शत्रुकी अधीनता स्वीकार करनेसे तो मरना श्रेष्ठ है। वह अपने हाथमें हीरेसे जटित अँगूठी पहने हुए था। उसने हीरेको निकाल कर पीसा और खा गया ! मृत्युशय्यापर लेटे हुए इस बीर योद्धाने चिल्लाकर कहा " जाओ और महाराज़से कहो कि मैंने प्राण त्याग करके ही स्वामीभक्तिका परिचय दिया है। मेरी मृत्यु पर ही मरहटे अजमेरमें प्रवेश कर सकते हैं, पहले नहीं।" २-मेवाड़के जीवनदाता भामाशाह। कर्नल टाड साहबका कथन है कि इतिहासमें भामाशाह · मेवाड़के जीवनदाता के नामसे प्रसिद्ध हैं। वे ओसवाल जातिके जैन थे। देशभक्ति और देशसेवाके आदर्श नमूने थे । आप जगद्विख्यात लोकमान्य राणा प्रतापसिंहके दीवान थे । इस पदपर आपके घरानेके लोग पीढ़ियोंसे चले आते थे । जिन लोगोंने इतिहासके पन्ने पल्टे हैं उन्हें ज्ञात होगा कि मुगल सम्राट अकबरने चित्तौरपर आक्रमण किया था और भारतकेसरी वीर राणाप्रतापसिंहने बड़ी वीरतासे उसकी रक्षा की थी । एकबार राणाप्रतापके कोषमें द्रव्यका अभाव हो गया जिसके कारण वे अत्यन्त क्लेशित और पीडित हो रहे थे । उस समय उनकी दशा ऐसी शोचनीय थी कि उन्होंने इस हीनदशाके कारण मेवाड़का परित्याग करके कुटुम्बियों और साथियों सहित सिन्ध जानेका दृढ़ संकल्प कर लिया। वे अवली पर्वतसे नीचे उतरकर मरुभूमिमें पहुँच गये थे कि इतनेमें उनके देशभक्त मंत्री.भामाशाहने आकर उन्हें लौटा लिया । भामाशाहने अपने पूर्वजोंका संचय किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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