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________________ ६३० जैनहितैषी - नेसे हम तो नहीं सोच सकते कि धर्मके कौनसे अंगका घात हो जायगा और कौनसा पातक लग जायगा । कुछ लोग यह आपत्ति उपस्थित करते हैं कि जब हमारे पूर्वपुरुषोंने जातिसंस्थाको आश्रय दिया है और सैकड़ों वर्षोंसे यह चली आ रही है, तब हम इसके नियमोंका उल्लंघन क्यों करें? इसके उत्तरमें हमारा निवेदन यह है कि पूर्व पुरुषोंकी चलाई होनेसे ही जातिसंस्था अच्छी नहीं हो सकती है - हमें उसके हानिलाभोंपर विचार करना चाहिए । बापदादाओंका खुदवाया हुआ होनेके कारण ही खारे कुँआका पानी मीठा कहके नहीं पिया जा सकता । और आदिपुराण आदिके रचयिता भी तो हमारे पूर्व पुरुष थे, यदि पूर्वपुरुषोंकी ही बात मानना है तो फिर उनके अनुलोमविवाहके नियमको हम क्यों नहीं मानते ? और इस विषयका दाव कैसे किया जा सकता है कि पूर्वपुरुष भूल नहीं करते ? आगे होनेवाली सन्तानके हम भी तो पूर्वपुरुष हैं। क्या हम कह सकते हैं कि हमसे भूलें नहीं होती हैं ? संभव है कि हमारे पूर्वपुरुष भी अनेक अच्छी बातोंके साथ यह एक भूल कर गये हों । अथवा अपने देशकालादिकी परिस्थितियोंके अनुसार उस समय उन्होंने इस संस्थाके ज़ारी करनेमें लाभ सोचा हो और शायद उस समय लाभ हुआ भी हो; परन्तु आजकलकी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं हैं कि हमारी जातिसंस्थाके नियम इतने कड़े रहें कि हम परस्परविवाह सम्बन्ध न कर सकें । ऐसी दशामें हम क्यों लकीरके फकीर बने रहें ? हमारे पूर्वपुरुषोंकी यह आज्ञा भी तो है कि प्रत्येक कार्य देशकालकी योग्यताके अनुसार करना चाहिए । f For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jaihelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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