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________________ जैनजातियों में पारस्परिक विवाह । ६२७ सम्भवतः उनके सम्प्रदायके नहीं किन्तु दिगंबर संप्रदायके थे। दीक्षाके विषयमें सिद्धसेनका मत यह है कि ' बुद्धिमान् पुरुषोंको द्रव्य, क्षेत्र, काल भावका विचार करके जो योग्य मालूम हो वह करना चाहिए।" जैनजातियोंमें पारस्परिक विवाह । मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदा हि तद्भेदाचातुर्विध्यमिहास्नुते ॥ ४५ ॥ __-आदिपुराण, पर्व ३८ । जनसमाजके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित हो चुका है कि, जैन 'धर्मकी माननेवाली जो अनेक जैनजातियाँ हैं उनमें परस्पर विवाहसम्बन्ध या बेटीव्यवहार होना चाहिए अथवा नहीं । इस विषयकी चर्चाका प्रारंभ भी हो गया है-एक पक्ष इसे आवश्यक तथा लाभजनक बतलाता है और दूसरा अनावश्यक तथा हानिकारक बतलाता है; परन्तु दोनों ही पक्षोंकी ओरसे अभीतक इस विषयमें उहापोहपूर्वक विचार नहीं किया गया है और न सर्वसाधारणको यह समझाया गया है कि इसमें क्या क्या लाभ और क्या क्या हानियाँ हैं । इस लेखमें हम पारस्परिक विवाहोंके बिना जो हानियाँ होती हैं, उनपर विचार करेंगे । आशा है कि, जो सज्जन इस विषयमें हमसे विरुद्ध हैं वे भी अपने विचार विस्तारपूर्वक प्रकाशित करनेकी कृपा दिखलावेंगे। .. - 'सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए कि इस विषयमें कोई धार्मिक हानि तो नहीं है। वर्तमानमें जो जैन ग्रन्थ प्राप्य हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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