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जैनहितैषी
सम्पूर्ण आप्तपरीक्षा ग्रन्थमें इसी मंगलाचरणकी विस्तारपूर्वक व्याख्या की गई है।
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आचार्य सिद्धसेन । आदिपुराण, हरिवंपुराण आदिके कर्त्ताओंने एक सिद्धसेन नामक महाकवि और नैयायिकका स्तवन किया है। परन्तु न तो इनका कोई ग्रन्थ ही प्राप्य है और न यह मालूम है कि ये कब हुए हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी एक — सिद्धसेन '' नामके महान् विद्वान् हो गये हैं जो ‘सिद्धसेनदिवाकर ' कहलाते हैं और जो विक्रमकी समाके - क्षपणक' नामसे प्रसिद्ध रत्न थे । अभीतक हमारा यह खयाल था कि उमास्वामीके समान सिद्धसेन भी एक ही होंगे और उन्हें दोनों सम्प्रदायवाले अपना अपना मानते होंगे; परन्तु अब हमें इस विषयमें सन्देह होने लगा है। श्वेताम्बरसम्प्रदायमें हरिभद्र नामके एक प्रतिष्ठित आचार्य हो गये हैं। उनका स्वर्गवास विक्रमसंक्त् ५८५ या ५७५ में हुआ था। उनके बनाये हुए बहुतसे ग्रन्थ हैं जिनमें एक धर्मबिन्दु भी है। इस ग्रन्थके चौथे अध्यायमें दीक्षा लेने योग्य मनुष्यका वर्णन करतेहुए ग्रन्थकर्त्ताने वाल्मीकि, व्यास, सम्राट्, वायु, नारद, वसु, क्षीरकदम्बक, बृहस्पति, विश्व,
और सिद्धसेन इन दश आचार्योंके मत दिये हैं और उनको ठीक न बतलाकर अन्तमें अपना मत दिया है। सिद्धसेनका मत सबसे पीछे दिया है और उसके बाद अपना दिया है। इससे मालूम होता है कि ये सिद्धसेनाचार्य हरिभद्रके पहले हो गये हैं और
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