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________________ ६२४ जैनहितैषीmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwari ‘वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः । श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच्च ।" इससे मालूम होता है कि वादिराज और वादीभसिंह दोनों महाकवि सोमदेवके शिष्य थे; परन्तु टीकाकार महाशयने यह नहीं लिखा कि उपर्युक्त श्लोकार्ध किस ग्रन्थका है। वादिराज अपनेको मतिसागर मुनिके ( पार्श्वकाव्यमें ) और वादीभसिंह ( गद्यचिन्तामणिमें ) अपनेको पुष्पषेण मुनिके शिष्य बतलाते हैं । इसके सिवाय वादिराजने पार्श्वचरित शकसंवत ९४७ में, समाप्त किया है जब कि यशस्तिलकको बने हुए ६६ वर्ष बीत चुके थे और वह उनकी प्रौढ अवस्थाकी रचना जान पड़ती है। वादीमसिंहके गुरु पुष्पषेण थे और मल्लिषेणप्रशस्तिसे मालूम होता है कि वे ( पुष्पषेण ) अकलंकदेवके गुरुभाई थे । अष्टसहस्रीकी उत्थानिकामें 'वादीभसिंहनोपलालिता आप्तमीमांसा ' लिखा है। इससे वादीभसिंह अकलंकदेवके समकालीन अर्थात् शक संवत् ७७२ के लगभगके विद्वान् ठहरते हैं जो यशस्तिलक कर्त्ताके शिष्य नहीं हो सकते। इन सब कारणोंसे श्रुतसागरसूरिके उक्त कथनमें शङ्का होती है। (२५) तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण । मोक्षमार्गस्य नेतारं भत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ इस प्रसिद्ध मंगलाचरणको कोई सर्वार्थसिद्धि टीकाका कोई गन्धहस्तिमहाभाष्यका और कोई राजवार्तिक श्लोकवार्तिकादिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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