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________________ विधवा-सम्बोधन । ५०७ प्रबल न होने पायँ कषायें, लक्ष्य सदा इसपर रखना, स्वार्थत्यागके पुण्य पन्थपर, सदा काल चलते रहना ॥ (११) क्षत्रभंगुर सब ठाठ जगतके, इनपर मत मोहित होना काया मायाके धोखमें, पड़, अचेत हो नहिं सोना। दुर्लभ मनुज जन्मको पाकर, निजकर्तव्य समझ लेना, उसहीके पालनमें तत्पर, रह, प्रमादको तज देना॥ (१२) दीन दुखी जीवोंकी सेवा, करनी सीखो हितकारी, दीनावस्था दूर तुम्हारी, हो जाए जिससे सारी। दे करके अवलम्ब उठाओ निर्बल जीवोंको प्यारी, इससे वृद्धि तुम्हारे बलकी, निःसंशय होगी भारी॥ . (१३) हो विवेक जागृत भारतमें, इसका यत्न महान करो, अज्ञ जगतको उसके दुख दारिद्य आदिका ज्ञान करो। फैलाओ सत्कर्म जगतमें, सबको दिलसे प्यार करो, बने जहाँ तक इस जीवनमें, औरोंका उपकार करो॥ (१४) 'युग-चीरा' बनकर स्वदेशका फिरसे तुम उत्थान करो, मैत्री भाव सभीसे रखकर, गुणियोंका सन्मान करो। उन्नत होगा आत्म तुम्हारा, इन ही सकल उपायोंसे, शांति मिलेगी, दुःख टलेगा, छूटोगी विपदाओंसे ॥ देवबन्द, जि. सहानुपुर ता. १९-७-१५ । समाजसेवक-- । जुगलकिशोर मुख्तार । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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