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________________ पर्युषणपर्व अथवा पवित्र जीवनका परिचय। ५७५ करना चाहिए; बल्कि यदि बन सके तो इसे जो दश दिनके भीतर मर्यादित कर दिया है सो बढ़ाकर अपने जीवनकी अवधिके बराबर विस्तृत कर देना चाहिए। पर्युषण अथवा पर्युपासना, अर्थात् अपने भीतर त्रिगढ़रूप गढ़की ओटमें विराजेहुए आत्मदेवकी उपासना, आत्मावरमण, आत्मस्थिरता, आत्मैकता, मन वचन कायके योगोंका आत्माभिमुखीकरण और विशेष स्पष्ट शब्दोमें कहना हो तो आत्मिक जीवन, दैवीजीवन अथवा पवित्र जीवन । - यद्यपि आत्माके लिए आत्मिकजीवनमें जीना सहज अथवा स्वाभाविक ही है और इस कारण यह बहुत ही सुगम काम है; तथापि आत्माने अपनी ही इच्छासे जो जो शरीर बाँधे है वे सब अपने स्वभावके अनुरूप रात दिन प्रवर्तित होते रहते हैं, इस कारण उनके भीतर निवास करनेवाले आत्माको, उनके गाढ़ सहवासके कारण उनका स्वभाव ही निज स्वभाव जान पड़ता है और इससे स्वस्वभावका स्मरण नहीं रहता है । स्थूल शरीर, तैजस या इच्छाशरीर, और कार्माण या विचारशरीर, इन तीनों शरीरोंके साथ सतत सहवास रखनेवाला आत्मा इनके धर्मोंको अपना धर्म मानने लगता है और वह यहाँ तक कि स्वस्वभावको तो बिलकुल ही भूल जाता है। जिस तरह गणिकाके सहवासमें रहनेवाले पुरुषको शायद ही कभी अपनी पत्नीका स्मरण होता है, उसी तरह आत्माको भी इन तीन शरीरों के निरन्तर सहवासके कारण स्वस्वभावका स्मरण शायद ही कभी होता है और वह भी प्रयत्न करनेसे होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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