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________________ ५९६ जनहितैषी नाम और ग्रन्थनिर्माण समय, इन दो बातोंके सिवाय और तो कोई भी ऐतिहासिक बात नहीं आई । बल्कि ग्रन्थान्तके जिन ५ - ६ श्लोकोंमें रविषेणने अपनी गुरुपरम्परा – इन्द्रगुरु - दिवाकरयतिअर्हन्मुनि-लक्ष्मणसेन - रविषेण' --- बतलाई है उनका ही लोप कर दिया । ये श्लोक प्रायः सब ही प्रतियोंमें मिलते हैं, और भाषावचनिकामें भी इनका अर्थ किया गया है, फिर मालूम नहीं सम्पादकने उक्त श्लोकोंको इतिहासकी चीज़ क्यों न समझा ? कथासूत्र आदिका उपयोग तो तब मालूम होता जब सम्पादक महाशय इस ग्रन्थके विषयमें एकाध स्वतंत्र लेख लिखनेकी कृपा करते और उसमें रविषेण आदिके विषयमें कुछ नया प्रकाश डालते । पर यह लिखें कैसे ? इसके लिए तो परिश्रमकी ज़रूरत होती है ! बिना परिश्रमके ही प्रशंसाकी लूट करनेवाले भला इस झंझट में क्यों पड़ने लगे ! हरिवंशपुराण | अब हरिवंशपुराणके मंगलाचरणादिके अनुवादके भी कुछ नमूने देख लीजिए: जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् 1 वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥ ३० ॥ इस श्लोकका भावार्थ यह है कि "" समन्तभद्राचार्यके वचनजो कि ' जीवसिद्धि ' और ' युक्त्यनुशासन नामक शास्त्रोंके प्रगट करनेवाले हैं - महावीर भगवानके वचनोंके ससान प्रकाशित ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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