SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनसिद्धान्तभास्कर । ५९३ " किया है । " पं० हरनाथजी इसका अनुवाद करते हैं- “ त्रिशलादिनायकसम्बन्धी वृतान्त इस पद्मपुराणमें मैं कहता हूँ । ” कहिए पाठक, आप क्या समझे ? त्रिशलादिनायकसम्बन्धी वृत्तान्त आपने और भी कभी इस पुराणमें सुना था ? उपसर्ग जयन्तस्य केवलज्ञानसम्पदम् । नागराजस्य संक्षोभं विद्याहरणसर्जने ॥ ५२ ॥ इसका वास्तविक अर्थ इस प्रकार होता है - " संजयन्त नामक मुनिपर विद्युद्दंष्ट्र नामक विद्याधरके द्वारा अनेक तरहके उपसर्ग या उपद्रव होना, मुनिका केवलज्ञान प्राप्त करना, मुनि-उपसर्गके कारण धरणीन्द्रका विद्युद्दंष्ट्र्पर क्रोधित होकर उसकी विद्यायें छीनलेना और फिर यह बतलाना कि ये विद्यायें तुझे इस प्रकार तप आदि करनेसे फिर प्राप्त हो जायँगी ।" द्विवेदीजी इसका अर्थ करते हैं- “ जयन्तका उपसर्ग और केवल ज्ञानकी प्राप्ति, विद्याध्ययनाध्यापनमें नागराजका संक्षोभ । ” क्या सेठ पदमराजजी अनुवादकके इस वाक्य—— विद्याध्ययनाध्यापनमें नागराजका संक्षोभ ' का क्या अर्थ होता है बतलानेकी कृपा करेंगे ? विद्या पढ़ने पढ़ानेसे नागराज नाराज़ हो गया, यही कि और कुछ ? अजितस्यावतरणं पूर्णाम्बुदसुता सुखम् । विद्याधरकुमारस्य शरणं प्रतिसंश्रयम् ॥ ५३ ॥ इसका सीधा अर्थ यह है-“ अजितनाथका जन्म, पूर्णमेघके पुत्र मेघवाहनकी विपत्ति, और उस विद्याधरकुमार ( मेघबाहन ) का भागकर अजितनाथके समवसरणका आश्रय लेना । " पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy