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________________ इतिहासप्रसङ्ग | (१) धर्मभूषणके गुरु । श्रीधर्मभूषणयतिके गुरु श्रीवर्धमान भट्टारक थे ऐसा न्यायदी - पिकाकी प्रतिके अन्तमें लिखा है । यह प्रति भी उक्त दौर्बलि शास्त्री के पुस्तकालय में है । इस प्रकार लिखा है: - " श्रीमद्वर्धमानभट्टारकाचार्यगुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयानां पदाब्जभृङ्गश्रीमदभिनवधर्म भूषणयतिविरचिता न्यायदीपिका । ” उक्त पुस्तकालयकी न्यायदीपिकाकी दूसरी प्रतिमें भी यही लिखा है । ( ६ ) अष्टांगहृदयके कर्त्ताका परिचय । मैसूरके श्रीयुक्त पण्डित पद्मराज के पुस्तकालय में अष्टाङ्गहृदय वैद्यक ( वाग्भट ) की एक कनड़ी प्रति है । उसके अन्तमें निम्नलिखित दो लोक बहुत महत्त्वके हैं: यज्जन्मनः सुकृतिनः खलुसिन्धुदेशे, यः पुत्रवन्तमकरोद्भुवि सिंघ (ह) गुप्तम् । तेनोक्तमेतदुभयज्ञभिषग्वरेण स्थानं समाप्तमिति ॥ १ ॥ नमो वाडव (वाग्भट ? ) तीर्थाय विदुषे लोकबन्धवे । येनेदं वैद्यवृद्धानां शास्त्रं संग्रह निर्मितम् ॥ २ ॥ ४८३ ...... Jain Education International इससे जान पड़ता है कि वाग्भट सिन्धुदेशके रहनेवाले थे और उनके पिताका नाम सिंहगुप्त था । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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