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________________ ४७६ जैनहितैषी-- अत्युक्तियोंका तो वह भण्डार है। प्रशंसा करनेमें उसका लेखक बहुत ही उदार है। इसी लिए वह गुणभद्रस्वामीको द्वादशांग चतुर्दशपूर्वका ज्ञाता बतलाता है ! जिनसेनस्वामीको धवलमहाधवलपुराणादि| सकल ग्रन्थोंका कर्ता कहता है, यद्यपि उन्होंने जयधवलाटीकाके ही शेष अंशको बनाया है, महाधवलटीकाको नहीं । श्रवणबेलगुलम्थ बाहुबलि स्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करानेवाले चामुण्डरायको वह दक्षिण-तैलङ्ग-कर्णाटक देशाधिपति बतलाता है ! परन्तु असलमें वे गंगवंशीय राजा राचमलके मंत्री और सेनापति थे । लेखकको क्या खबर थी कि कुछ समयके बाद मेरी इस रचनाको कोईइतिहासकी चीज़ समझेगा, इसीलिए उसने जो मनमें आया-कर्ण मधुर और यमकानुप्रासयुक्त जो विशेषण सामने आये उन्हें ही लिख दिया है। वह अपने एक आधुनिक सोमसेन नामक भट्टारकको नौलाख धनुर्धरोंके स्वामी, दक्षिण कर्नाटकीय १७ लाख राजाओंसे पूजित बतलाता है !!! बुद्धिशून्य अन्धविश्वासियोंको छोड़कर और कोई तो शायद ही इस पट्टावलीकी बातोंको माननेके लिए तैयार होगा ___ इसके आगे : जिनसेन और गुणभद्राचार्यका परिचय ' शीर्षक लेख है । इसके प्रारंभमें ही आप लिखते हैं कि “ जिनसेन और गुणभद्राचार्यने अपने समयादिका निर्णय कहीं नहीं किया और न अपनी पूरीपूरी पट्टावली ही किसी ग्रन्थमें दी ।" सेठजी, जिनसेनस्वामीने तो अवश्य ही अपना समय ग्रन्थ लिखनेका नहीं बताया है; परन्तु गुणभद्रने तो बतलाया है ! उत्तरपुराणकी प्रशस्ति जो आपने इसी अंकमें प्रकाशित की है, उसमें साफ शब्दोंमें लिखा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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