________________
जैनसिद्धान्तभास्कर।
४७५
दशांगधारियोंके नाम पट्टावलीमें ठीक हैं; परन्तु आपके अनुवादक महाशय उनमें एक मुनीन्द्रको और जोड़कर छह कर देते हैं । वास्तवमें यह 'मुनीन्द्र' शब्द पाण्डुका विशेषण है कोई जुदा नाम नहीं । इनके आगेके चार आंचार्योंमें एक जिनसेन नाम भी मालूम नहीं क्यों बढाया गया है । अपने पाठकोंको पट्टावलीकी मनोयोगपूर्वक पर्यालोचना करनेकी सम्मति न देकर उसकी इन भिन्नताओं पर सम्पादक महाशय स्वयं ही कुछ विचार करते तो अच्छा होता । उससे आपकी और आपकी पट्टावलीकी दोनोंकी ही योग्यताकी जाँच हो जाती। ___ पट्टावलीके ८ वें गद्यमें गणितज्ञ महावीराचार्यका उल्लेख है जो ( गणितसारसंग्रहके मंगलाचरणसे मालूम होता है कि ) अमोघवर्ष राजाके समयमें हुए हैं और इस कारण वे वीरसेन जिनसेनके समकालीन सिद्ध होते हैं; परन्तु देखते हैं कि उसके आगेके ११ वें गद्यमें नन्दिसेनादि संघस्थापक अर्हद्वलिका स्मरण है जो विक्रमकी पहली शताब्दिमें बतलाये जाते हैं। उनके आगे चामुण्डरायकृत बाहुबलिकी प्रतिष्ठा करानेवाले अजितसेनाचार्यका उल्लेख है जो शककी १० वीं शताब्दिमें हुए हैं। इनके बाद १५ वें गद्यमें शिवकोटि महाराजको मुनि बनानेवाले समन्तभद्र स्वामीका उल्लेख है जो कुन्दकुन्द स्वामीसे कुछ ही पीछेके बतलाये जाते हैं। इस तरहकी क्रमभंगता उसमें जगह जगह दिखलाई देती है जिससे यह कभी नहीं कहा जा सकता कि उसमें सेनसंघके आचार्योंकी क्रमबद्ध परम्परा है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org