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________________ ४७४ जैनहितैषी रही होगी; परन्तु पीछे इसकी यथोचित रक्षा न हुई और एक रीति मात्र रह गई। जिसको जितने नाम या जितनी परस्परा याद रही, पीछे उसीसे काम लिया जाने लगा। पहले विद्वान् लोग इसे स्वयं संस्कृत भाषामें रचकर पढ़ते थे; परन्तु पीछे दूसरोंकी रचीरचाई ही पढ़ जाने लगी। इस तरहकी प्रतिदिन पढ़नेके लिए लिखी हुई गुर्वावलि याँ अकसर मिलती हैं और भट्टारक तथा उनके शिष्योंको तो प्रायः कण्ठ आती हैं । यह पट्टावली भी उसी तरहकी गुर्वावलियोंमेंसे एक है । इसके अन्तिम वाक्योंसे मालूम होता है कि यह दिलीकी गद्दीके पुष्करगच्छीय भट्टारक छत्रसेनकी अभ्युदयसमृद्धिकी सिद्धिके लिए अभिषेकके समय पढ़ी गई थी । अवश्य ही इसमें जिन आचायाँके नाम आये हैं वे सच होंगे और उनमेंसे बहुतोंकी प्रशंसा भी शायद सच होगी; परन्तु वह क्रमबद्धपरम्परा है इसको तो भास्करके सम्पादकको छोड़कर और कोई सच नहीं मान सकता । शायद उनकी समझमें कोई भी लिखी हुई बात असत्य नहीं हो सकती ! सम्पादक महाशयने यह पट्टावली जिनसेन गुणभद्र स्वामीका परिचय करानेके लिए उनकी वंशपरम्परा बतलानेके लिए प्रकाशित की है; परन्तु यह भी बतलानेकी कृपा न की कि इसकी प्रारंभकी गुरुपरम्परा आदिपुराणके ७६ वें अध्यायकी परम्परासे क्यों नहीं मिलती है ? आदिपुराणके कर्त्ता ( और इन्द्रनन्दि आदि भी ) पाँच श्रुतकेवलियोंके बाद विशाख आदि ११ द्वादशाङ्गज्ञाताओंका नाम बतलाते हैं। पर आपकी पट्टावलीमें सिर्फ ९ ही आचार्य बतलाये गये हैं सिद्धार्थ और नागसेनका उनमें पता ही नहीं है। आगे पाँच एका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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