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________________ जैनसिद्धान्तभास्कर। ४७३ इतिहासज्ञताकी ! गुणभद्रके शिष्यको आप जिनसेनका शिष्य बनाते हैं ! — तस्य शिष्येषु मुख्यः' में 'तस्य' का सम्बन्ध १९ वें श्लोकके गुणभद्रसूरिसे है, यह बुद्धिको जरासा ही जोर देनेसे मालूम पड़ जाता; पर जोर लगानेकी आप आवश्यकता समझें तब न ! किसी पण्डितसे अर्थ लिखवा दिया कि छुट्टी पाली । स्वयं अर्थ लगानेके लिए तो योग्यताकी भी अवश्यकता होती है ! ___ मंगलाचरण और प्रशस्तिके अनुवादमें और और दोष भी बहुत अधिक हैं; पर खेद है कि स्थानाभावके कारण हम उनकी आलोचना नहीं कर सके । ___ इसके आगे सेनगणकी सार्थ पट्टावली है जो दो अंकमें समाप्त हुई है। इसके आधेभागका अनुवाद पं० झम्मनलालजीने और शेषका पं० हरनाथजी द्विवेदीने किया है । अनुवादकी क्लिष्टता दुर्बोधता और अर्थच्युतिके विषयमें हम कुछ नहीं कहना चाहते । हम उसकी इतिहासताके विषयमें ही कुछ निवेदन करेंगे । पट्टावलीका मूल्य उस समय समझमें आता जब सम्पादक महाशय उसकी प्रामाणिकता सत्यता आदिके विषयमें कुछ नोट देते; परन्तु इस परिश्रमसाध्य कार्यमें वे क्यों पड़ने लगे? अच्छा, तो आइए हम ही कुछ विचार करें। हमारी समझमें इतिहासकी दृष्टिसे यह पट्टावली अधिक महत्त्वकी नहीं है । यह पट्टावली है भी नहीं । यह पुरानी पद्धति है कि जब भगवानका अभिषेक किया जाता है तब अभिषेक करनेवाले अपनी गुर्वावलीका उच्चारण करते हैं । अवश्य ही किसी “समय यह पद्धति गुरुपरम्पराको स्मरण रखनेमें बहुत उपयोगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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