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________________ ४७२ जैनहितैषी www. जिनसेनभगवतोक्तं मिथ्याकविदर्पदलनमतिललितम् । . सिद्धान्तोपनिबन्धनक; भ; चिराद्विनायासात् ॥ १८ ॥ अतिविस्तरभीरुत्वादवशिष्टं संगृहीतममलधिया। गुणभद्रसूरिणेदं प्रहीणकालानुरोधेन ॥ १९॥ इनमेंसे पहले तीन श्लोकोंमें तो जिनसेनस्वामीके आदिपुराणके विशेषण हैं जिनमें महत्त्वका विशेषण यह है कि वह पुराण · कवि परमेश्वरनिगदितगद्यकथा मातृकं ' है, अर्थात् कविपरमेश्वरके किसी गद्यपुराणके आधारसे उसकी रचना हुई है-मूल उसका उक्त गद्य पुराण है। आगे १९ वें श्लोकमें बतलाया है कि उसके अवशिष्ट भागको गुणभद्रसूरिने बनाया। ____अब देखिए, भास्करमें इन श्लोकोंका क्या अर्थ प्रकाशित हुआ है:-" सभी छन्द और अलङ्कारका लक्ष्य, सूक्ष्मार्थ तथा गूढपदकी रचनावाली एक 'गद्यकथा' कविपरमेश्वरने बनायी ।........" अच्छा बनाई होगी; पर उसका सम्बन्ध भी तो बतलाइए कि इस प्रकरणमें क्या है! अनुवादकसे जरा आप भी तो पूछ लेते कि 'कवि परमेश्वरने बनाई' यह अर्थ कहाँसे आकूदा । पहले श्लोकमें तो क्रियाका कहीं चिन्ह भी नहीं है । और नहीं तो जैनहितषीमें प्रकाशित हुए 'जिनसेन और गुणभद्राचार्य' शीर्षक विस्तृत लेखको ही उठाकर देख लेते; उसमें तो इन श्लोकोंका अच्छी तरह खुलासा किया है । आपका जिनसेन और गुणभद्रवाला सारा लेख ही तो उसीको सामने रखकर लिखा गया है। आगे २९ वें श्लोकके अर्थमें लिखा है कि " लोकसेन मुनीश कविवर जिनसेनाचार्यके मुख्य शिष्योंमें थे !" बलिहारी है इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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