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जैनहितैषी
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कवीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्ण्यते। विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥
इसका अर्थ यह है कि “ देव' कवियोंके तीर्थकर हुए हैं, अर्थात् विद्वानोंमें तीर्थकरके तुल्य (बड़े पूज्य ) हुए हैं। उनके विषयमें अधिक क्या कहा जाय ? उनका वचोमयतीर्थ (व्याकरण शास्त्र विद्वानोंके वचनमलको नष्ट करनेवाला है।" इस श्लोकमें देवनन्दि या पूज्यपाद आचार्यका स्मरण किया गया है। 'देव' उनका संक्षिप्त किया हुआ नाम है। ___ अकलंकदेवका भी नाम 'देव' है; परन्तु उक्त श्लोकके आगे ही ' भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः' कहकर उनका जुदा स्मरण किया गया है। इसलिए इसका अर्थ अकलंक नहीं किया जा सकता। अब देखिए भास्करमें इसका कितना बढ़िया अर्थ किया गया है:-" कवियोंमें कितने ही तीर्थकर भी हो गये हैं, किन किनका वर्णन किया जाय ? इन लोगोंके वचनमय तीर्थने विद्वानोंके वाङ्मलको नष्ट कर दिया।" लीजिए, यह बिलकुल नई बात मालूम हुई ! अच्छा होता यदि ऐसे पंचकल्याणकप्राप्त कवियोंके नाम भी बतला दिये जाते। __ आगे उत्तरपुराणके ७६ वें अध्यायके कुछ श्लोक दिये हैं। उनमें द्वादशांगके पाठी जिन ११ मुनियोंके नाम हैं उनका अर्थ करनेमें बहुत ही भद्दी भूल की गई है। विजयी बुद्धिलो गङ्गादेवश्च क्रमशो मतः।' इसका ‘क्रमशो' शब्द यह बतलाता है कि ये सब आचार्य क्रमसे-एकके बाद एक-हुए हैं। परन्तु अर्थ
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