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जैन सिद्धान्तभास्कर ।
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वे
मामूली हैं; परन्तु अनुवाद तो बहुत ही अंडबंड लिखा गया है । अनुवादक महाशय पं० झम्मनलालजी हैं । वे इतिहासज्ञ नहीं हैं; परन्तु सम्पादक महाशय तो इतिहासज्ञशिरोमणि हैं ! ऐतिहासिक अशुद्धियाँ उनकी दृष्टिमें तो आजानी थीं । यह एक बहुत ही प्रसिद्ध बात है कि प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्रोदय नामक न्यायग्रन्थके बनानेवाले हैं। संक्षेपमें इस ग्रन्थको 'चन्द्रोदय' भी कहते हैं । परन्तु मंगलाचरणके ४७ वें श्लोकके अर्थमें अनुवादक महाशय कहते हैं कि " प्रभाचन्द्रने चन्द्रोदय नामक काव्य बनाकर जगत्को आल्हादित किया ! " पर जान पड़ता है 'चन्द्रोदय' का यही अर्थ सम्पादक महाशयको भी मंजूर है, इसलिए वे आगे ४९ वें पृष्ठमें जिनसेन स्वामीका परिचय देते हुए लिखते हैं:- “ चन्द्रोदयके रचयिता श्रीप्रभाचन्द्र कविकी आपने बड़ी पूज्य श्रद्धा भरी स्तुति की है और इनकी बड़ी गौरवता ( ? ) दर्शायी ( ? ) है। इससे मालूम होता है कि चन्द्रोदय काव्य उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था ! " बाहरी इतिहासज्ञता ! अजी इतना और लिख देते कि “ भवनमें यह काव्य मौजूद है " तो बात और भी पक्की हो जाती । ४९ वें श्लोक में शिवकोटिके 'भगवती आराधना' नामक ग्रन्थका स्पष्ट उल्लेख है; परन्तु अनुवादक महाशय उसे नहीं बतला सके-यों ही शब्दार्थ मात्र कर दिया है । ५० वें श्लोकका अर्थ बहुत ही अस्पष्ट है । ५१ वें काणभिक्षुके ' कथालङ्कार' का उल्लेख है; परन्तु वह भी सष्ट करके नहीं बतलाया गया । ५२ वें श्लोकका अर्थ तो बहुत ही गाण्डित्य पूर्ण है:
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