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________________ जैनसिद्धान्तभास्कर। ~~~~~~~~ सामाजिक विषयका उल्लेख बिल्कुल ही न रहेगा और यह भी इसका एक मुख्य उद्देश्य रहेगा कि किसी समाचारपत्रके विषयोंकी आलोचना न करना ।" अब पाठक इन उद्देश्योंके साथ भास्करके नये अंकके लेखोंका मिलना कर देखें । जैनब्रदर्स एसोशियेशन प्रयाग, जैनमित्रके सम्पादक, मोरेना पाठशाला आदि पर आपने जो अमर्यादित आक्रमण किये हैं, मालूम नहीं वे इतिहासके किस अंगसे ताल्लुक रखते हैं । सामाजिक बातोंमें नहीं पड़नेका और समाचारपत्रोंकी आलोचना न करनेकी प्रतिज्ञा करनेका भला और कौनसा अनोखा अर्थ है ? माना कि एसोसिएशनके मेम्बरों के विचार अच्छे नहीं, ब्रह्मचारीजीने गल्ती की; पर इससे आपके इतिहासपत्रका क्या सम्बन्ध ? क्या आप अपना उक्त सामाजिक क्रोध अन्य किसी सामाजिक पत्रके द्वारा प्रकट न कर सकते थे? बड़े अफसोसकी बात है कि अपने उद्देश्योंको भी. भूल जानेवाले लोग अभिमानके मारे जमीन पर पैर नहीं रखना चाहते । भास्करके किसी भी लेखको आप पढ़ लीजिए, आपको यह कदापि मालूम नहीं पड़ सकता कि हम कोई इतिहासका लेख पढ़ रहे हैं । इतिहासलेखककी भाषा अँची तुली, आडम्बरशून्य होती है-बिना अँचा तुला एक शब्द भी उसकी कलमसे नहीं निकलता; पर यहाँ इस बातका सर्वथा अभाव है। महापुराणका परिचय देते हुए आप लिखते हैं:-" जिन्होंने इस परमोत्कृष्ट ग्रन्थका स्वाध्याय विचारपूर्वक किया होगा उनको यह मालूम होगा कि कैसे महत्त्व तथा इतिहासके अनेक अभावोंकी पूर्तिका कारण यह ग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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