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________________ भट्टाकलङ्कदेव | ४५३ न होगा; और प्रमावकचरितके कर्त्ताके समान उन्होंने इस अयथार्थ भागके बढ़ानेकी आवश्यकता न समझी होगी । महाकवि वादिराजसरिका पार्श्वनाथचरित शक संवत् ९४८ का बना हुआ है । उसमें लिखा है:T तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधीः । जगद्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ॥ इससे मालूम होता है कि मलिषेणप्रशस्तिसे भी पहले यह बात प्रसिद्ध थी कि अकलंकदेवने बौद्धदस्युओंको दण्डित किया था या उनके साथ शास्त्रार्थ किया था । अर्थात् अकलंककथाका यह शास्त्रार्थादि सम्बधी भाग कल्पित नहीं हैं । पीछेके भी दिग म्बर ग्रन्थकार इस शास्त्रार्थका उलेख करते हैं: अकलङ्कोsकलंकः स कलौ कलयतु श्रुतम् । पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता ॥ [ पाण्डवपुराण, पिटर्सनकी चौथी रिपोर्टका पृष्ठ १५७ ] अकलंकगुरुर्जीयाद कलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः ॥ [ ब्रह्माजितकृतः हनुमश्चरित ] उक्त कथाओंके विषयमें मैंने जो अनुमान किये हैं संभव है कि ठीक हों; अधिक छानवीन करनेसे शायद इनसे विरुद्ध प्रमाण मिल जावें, अर्थात् दोमेंसे कोई एक कथा ही ठीक हो, दूसरी पहलीकी अथवा पहली दूसरीकी नकल मात्र हो; परन्तु इस तरहका विश्वास करनेके लिए तो हृदय तैयार नहीं होता है कि दोनों ही कथायें सही हैं— हंस परमहंसकी घटनायें भी सही और अकलंक निकलंककी भी सही । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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