________________ भट्टाकलङ्कदेव / 447 थाकोश तथा राजवलीके कर्ताके वचनोंकी अपेक्षा अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है। पुरुषोत्तम' और 'जिनदास' इन नामोंके कल्पित होनेकी जितनी अधिक संभावना है उतनी 'लघुहव्व' के कल्पित होनेकी नहीं, क्योंकि जिस कर्नाटक प्रान्तमें अकलंक देव हुए हैं उस प्रान्तमें ' लघुहव्व' जैसे नाम ही रखे जाते हैं / वहाँ इसीसे मिलते जुलते नामोंवाले अक्क, कर्क, वुक्कराय, आदि अनेक राजा हुए हैं / खोज करनेसे ‘लघुहव्व' राजाके वंशं ओर समयादिका भी पता लग सकता है। चरितनायकक पिताका वास्तविक नाम न बतला सकना, यह एक ऐसी मोटी गल्ती है, जो हमें कथाओंके सर्वाश पर सर्वतो आवसे श्रद्धा करने के लिए लाचार नहीं कर सकती और इस कारण हमें दिगम्बर कथाओंके और और अंशों पर भी सन्देह करनेका स्वत्व मिल जाता है। अकलंकदेवके भाई निकलङ्क थे, इस विषयमें कथाकोश या राजावलीकी कथाको छोड़कर और प्रमाण नहीं है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस कथामें निकलंकके चरितको जो अपने भाईके लिए आत्मोत्सर्ग करनेका महत्त्व दिया गया है वह साधारण नहीं है / यह इतनी असाधारण और पूज्यता बढ़ानेवाली बात है कि इसका अकलंकदेवके पीछेके सैकड़ों ग्रन्योंमें उल्लेख होना चाहिए था; परन्तु जिन बीसों स्थानोंमें अकरुकदेवकी स्तुति की गई है-उनके बौद्धविजयादि करनेकी प्रशंसा की गई है, वहाँ भी, और तो क्या निकलङ्कका नाम भी नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org