________________ 444 जैनहितैषी मरनेका बहुतही शोक हुआ और इस कारण बौद्धोंके ऊपर उनका क्रोध भड़क उठा! उन्होंने आकर्षिणी विद्याके बलसे उन सबारोंको खींचकर तप्ततेलकी कढाईमें डालकर भस्म कर देना चाहा / जब यह बात हरिभद्रसूरिके गुरुको मालूम हुई तब उन्होंने उनके पार क्रोधोपशमनार्थ कुछ गाथायें लिखकर भेनी जिससे वे शान्त हो गये। ____" उन्हें अपनी क्रोधभावनाका बड़ा पश्चात्ताप हुआ और इन 1414 सवारोंके मरने-मारनेरूप संकल्पसम्बन्धी पापका निवारण करनेके लिए 14 4 4 ग्रन्थोंकी रचना की। हरिभद्रके प्रत्येक ग्रन्थके अन्तमें विरह शब्द है जो उनके प्रिय भागिनेय (भानजे ) शिष्योंके वियोगका चिह्न है। गुरुने जो गाथायें क्रोधशमनार्थ भेजी थीं उनका विस्तार करके हरिभद्रसूरिने ' समराइच कहा' (समरादित्य कथा) नामक ग्रन्थकी रचना की" __यह कथा श्रीचन्द्रप्रभसूरिके 'प्रभावकचरित' नामक संस्कृत ग्रन्थमें लिखी हुई है / यह ग्रन्थ विक्रमसंवत् 1334 का बना हुआ है / ग्रन्थकी प्रशास्तिमें इस समयका उल्लेख है। __ श्रीराजशेखरसूरिका बनाया हुआ एक -- चतुर्विशति प्रबन्ध ' नामक संस्कृत ग्रन्थ है / वह विक्रमसंवत् 1405 का बनाया हुआ है। उसमें भी हरिभद्रसूरिकी उक्त कथा लिखी हुई है। उसका सार यह है:- . हरिभद्रसूरिके रोकने पर भी हंस परमहंस बौद्ध तर्क पढ़नेके लिए गये / एक वृद्धाके घर ठहरे और बौद्धाचार्यके पास बौद्धवेष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org