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________________ 442 जैनहितैषी रहस्य समझें और इसके लिए एक प्रसिद्ध बौद्धमठमें जाकर पढ़नेके लिए वे तैयार हो गये / यह मठ चित्रकूट या चित्तौड़से पूर्वकी ओर था / गुरुने इन्हें रोका; पर वह व्यर्थ हुआ / निदान ये बौद्ध वेष धारण करके बौद्धभठमें पढ़ने लगे और उन्होंने बहुत समय तक किसी पर भी यह प्रकट न होने दिया कि हम जैन हैं। इसी समय एक घटना ऐसी हुई जिससे इनके बौद्ध होनेमें लोगोंको शंका हो गई। इन्होंने एक पत्र पर जैनमतकी युक्तियोंके खण्डनका प्रतिखण्डन और दूसरे पर सुगतवादके दूषण लिख रक्खे थे / दैवयोगसे एक दिन ये पत्र हवामें उड़ गये और किसी तरह बौद्धगुरुकी दृष्टिमें जा पड़े। ___“गुरुको सन्देह हो गया कि ये कोई अर्हदुपासक हैं, इस से वे इस बातकी जाँच करने लगे कि वास्तवमें ये जैन हैं या नहीं। इसके लिए उन्होंने विद्यार्थियोंके आनेके मार्गकी सीढ़ियोंमें एक जैनप्रतिमाका चित्र बनवा दिया / गुरुके पास जानेका और कोई मार्ग न था और इस मार्गसे जानेमें जिनप्रतिमाका अविनय करके जाना पड़ता था। हंस परमहंस समझ गये कि गुरुको हम दोनोंके विषयमें शंका हो गई है। अब क्या करना चाहिए ? बड़ी चिन्ता हो गई। उसी समय उन्हें एक युक्ति सूझ आई / खड़ी मिट्टीके टुकड़ेसे उन्होंने प्रतिमा पर तीन लकीरें खींच दी और तब उसे बुद्ध प्रतिमा मानकर वे उसके ऊपर पैर रखकर गुरुके पास चले गये ! (जिन प्रतिमा और बुद्धप्रतिमामें बहुत बड़ा भेद नहीं होता है; प्रायः एकसी होती हैं / बुद्धप्रतिमामें यज्ञोपवतिके तीन धागोंका चिह्न रहता है, पर यह जिनप्रतिमामें नहीं होता।) इसके बाद एक दूसरी परीक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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