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________________ भट्टाकलङ्कदेव / 441 छोड़ा गया था बौद्धोंकी पुस्तकोंको पैरोंसे मथ डाला और जैनग्रन्थोंको अपनी सूंडसे उठाकर मस्तक पर रक्खा, उसने बौद्धोंको कोल्हूमें पिलवा देनेका हुक्म दे दिया ! परन्तु अकलङ्ककी प्रार्थना पर बौद्धोंको न मारकर, वह इस बात पर सम्मत होगया कि बौद्धोंको एक दूर देशमें निर्वासित कर दिया जाय और इसलिए वे समस्त / बौद्ध सीलोनके एक नगर कैंडीको निर्वासित कर दिये गये।" / ___ 'राजावलीकथे' के लिखे जानेका समय ईसाकी 19 वीं शताब्दी ऊपर लिखा जा चुका है / अर्थात् यह सबसे आधुनिक ग्रन्थ है / इसके सिवाय और जिन कथाग्रन्थोंके आधारसे राइस साहबने उक्त वर्णन लिखा है उनके विषयमें नहीं कहा जा सकता कि वे कबके बने हुए होंगे; पर यह निश्चय है कि आराधनाकथाकोशके समान ये सब कथायें भी दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ताओंकी लिखी हुई हैं / इन्हें परस्पर--मिलाकर विचारशील पाठक यह समझ सकते हैं कि केवल श्रद्धाके वशवर्ती होकर कथाग्रन्थों पर सर्वथा विश्वास कर बैठना कितना बड़ा जोखिमका काम है। ये तो हुई दिगम्बरी कथायें, अब इसी कथानकका अनुसरण करनेवाली एक श्वेताम्बरसम्प्रदायकी कथा भी सुन लीजिए / उसका सारांश नीचे दिया जाता है: " हरिभद्रसूरिके हंस और परमहंसके नामके दो शिष्य थे / गृहस्थाश्रमके ये उनके भानजे थे / न्याय, व्याकरण, दर्शनका अध्ययन कर चुकनेके बाद इनकी इच्छा हुई कि हम बौद्धदर्शनका भी * * राइस साहबकी लिखी हुई इस कथाका अंश श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजीने अनुवाद करके भेजा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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