SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भट्टाकलङ्कदेव । ४३७ ही दिन सबेरे अकलङ्कदेव वहाँ जा पहुँचे । इससे रानीको बहुत ही संतोष हुआ। ___“अब संघश्रीके साथ हिमशीतलकी सभामें अकलंकदेवका शास्त्रार्थ होने लगा । संघश्रीने अपने धर्मके और भी अनेक विद्वान् बुला लिये । यह शास्त्रार्थ छह महीनेतक हुआ । पीछे पद्मावती देवीके कहनेसे मालूम हुआ कि संघश्री स्वयं शास्त्रार्थ नहीं करता है, किन्तु उसकी इष्टदेवता तारा परदेकी ओटमेंसे बोला करती है और इसी लिए वादका अन्त नहीं आता है । यह जाननेके दूसरे ही दिन अकलंकदेवने परदेको अलग करके उस घडेको लातकी ठोकरसे फोड़ दिया जिसमें तारादेवी स्थापित थी और संघश्रीको । पराजित करके जैनधर्मकी अच्छी प्रभावना की । रानीकी इच्छा पूर्ण हुई; उसने भगवान्का. रथ खूब उत्साहके साथ निकाला।" आराधना कथाकोश जिसमें यह कथा लिखी है नेमिदत्त ब्रह्मचारीका बनाया हुआ है । ये मल्लिभूषणभट्टारकके शिष्य थे और विक्रम संवत् १९७६ के लगभग इनके अस्तित्वका पता लगता है। उन्होंने लिखा है कि मैंने प्रभाचन्द्र भट्टारकके गद्यकथाकोशको पद्यमें परिवर्तन करके यह ग्रन्थ बनाया है। । प्रभाचन्द्रका गद्य कथाकोश बहुत करके उन्हीं प्रभाचन्द्रका बनाया हुआ है जिनके पट्ट पर पद्मनन्दि भट्टारक सं० १३८५ में बैठे थे । अर्थात् अकलंकदेवकी यह कथा वि० की चौदहवीं शताब्दिकी लिखी हुई है। इसके पहले वह किस रूपमें थी और उसका मूल क्या है इसके जाननेका कोई साधन हमारे पास नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy