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भट्टाकलङ्कदेव ।
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ही दिन सबेरे अकलङ्कदेव वहाँ जा पहुँचे । इससे रानीको बहुत ही संतोष हुआ। ___“अब संघश्रीके साथ हिमशीतलकी सभामें अकलंकदेवका
शास्त्रार्थ होने लगा । संघश्रीने अपने धर्मके और भी अनेक विद्वान् बुला लिये । यह शास्त्रार्थ छह महीनेतक हुआ । पीछे पद्मावती देवीके कहनेसे मालूम हुआ कि संघश्री स्वयं शास्त्रार्थ नहीं करता है, किन्तु उसकी इष्टदेवता तारा परदेकी ओटमेंसे बोला करती है और इसी लिए वादका अन्त नहीं आता है । यह जाननेके दूसरे ही दिन अकलंकदेवने परदेको अलग करके उस घडेको लातकी ठोकरसे फोड़ दिया जिसमें तारादेवी स्थापित थी और संघश्रीको । पराजित करके जैनधर्मकी अच्छी प्रभावना की । रानीकी इच्छा पूर्ण हुई; उसने भगवान्का. रथ खूब उत्साहके साथ निकाला।"
आराधना कथाकोश जिसमें यह कथा लिखी है नेमिदत्त ब्रह्मचारीका बनाया हुआ है । ये मल्लिभूषणभट्टारकके शिष्य थे और विक्रम संवत् १९७६ के लगभग इनके अस्तित्वका पता लगता है। उन्होंने लिखा है कि मैंने प्रभाचन्द्र भट्टारकके गद्यकथाकोशको पद्यमें परिवर्तन करके यह ग्रन्थ बनाया है। । प्रभाचन्द्रका गद्य कथाकोश बहुत करके उन्हीं प्रभाचन्द्रका बनाया हुआ है जिनके पट्ट पर पद्मनन्दि भट्टारक सं० १३८५ में बैठे थे । अर्थात् अकलंकदेवकी यह कथा वि० की चौदहवीं शताब्दिकी लिखी हुई है। इसके पहले वह किस रूपमें थी और उसका मूल क्या है इसके जाननेका कोई साधन हमारे पास नहीं।
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