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भट्टाकलङ्कदेव ।
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दिनोंके बाद जब पिताने व्याह करनेका उद्यम किया तब पुत्रोंने अपने उक्त ब्रह्मचर्यव्रतकी बात कहकर साफ इंकार कर दिया और सब काम छोड़कर विद्याभ्यास में चित्त लगा दिया । जब विद्वान् हो गये तब इन्हें बौद्धशास्त्रोंके अध्ययनकी इच्छा हुई । परन्तु उस समय मान्यखेटमें कोई बौद्धधर्मका ज्ञाता न था, इसलिए ये वहाँसे चल दिये और 'महाबोधि ' नामक किसी स्थानमें अज्ञ विद्यार्थियोंका रूप धारण करके बौद्धशास्त्र पढ़ने लगे ।
"एक दिन बौद्धगुरु जैनधर्म के सप्तभंगी सिद्धान्तका स्वरूप बतला रहा था । पाठ अशुद्ध था, इस कारण उससे पदार्थ स्पष्ट करते न बना और वह किसी बहानेसे बाहर चला गया। इतनेमें अकलंकदेवने उस पाठको ठीक कर दिया । गुरूने आकर पढ़ा तो अभिप्राय स्पष्ट हो गया । इससे उसे सन्देह हो गया कि यहाँ कोई जैनधर्मका उपासक छुपे वेपसे पढ़ रहा है । उसका पता लगाना चाहिए । पहले शपथ आदि कराके सबसे पूँछा; परन्तु जब पता न चला तब एक जैनप्रतिमा मँगवाकर सब विद्यार्थियोंसे कहा कि इसको लाँघ जाओ । सत्र छात्रोंके लॉंच जाने पर अकलंककी बारी आई। उन्होंने एक चतुराई की - - सूतका एक बारीक धागा प्रतिमा पर डाल दिया और तब मनमें यह संकल्प करके कि यह सावरणा मूर्ति है वे उसे चट लाँघ गये । जब इस युक्तिसे कुछ पता न चला तब एक दिन आधीरातके समय जहाँ सब छात्र सोते थे, एकाएक काँसे के हजारों वर्तन जोरसे पटक दिये जिससे घबड़ाकर सब छात्रों के मुँह से उनके इष्टदेवका नाम निकल पड़ा । इस समय अकलंक निकलंकके
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