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________________ भट्टाकलङ्कदेव । ४३३ श्रीपालचार्यकी सम्पादन की हुई है। एक कुमारनन्दिभट्टारक भी उसी समय हुए है जिनके किसी ग्रन्थका एक श्लोक प्रमाणपरीक्षामें विद्यानन्दस्वामीने उद्धृत किया है । इस तरह अकलंकदेवके समयमें अनेक विद्वानोंके द्वारा जैनसम्प्रदाय प्रभावशाली बन रहा था। ग्रन्थरचना। १ अष्टशती-अकलंकदेवका यह सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है । समन्तभद्रस्वामीके देवागमका यह भाष्य है। २ राजवार्तिक-यह उमास्वामीके तत्वार्थसूत्रका भाष्य है । इसकी श्लोकसंख्या १६००० है। ३ न्यायविनिश्चय-- न्यायका प्रामाणिक ग्रन्थ समझा जाता है । आराके सिद्धान्तभवनमें इसकी एक वृत्ति वादिराजसूरिकृत मौजूद है। ४ लघीयत्रयी-प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुदचन्द्रोदय इसी ग्रन्थका भाष्य है। ५ बृहत्त्रयी-बृद्धत्रयी भी शायद इसीका नाम है। लघीयस्त्रयी और बृद्धत्रयी ये दोनों ग्रन्थ कोल्हापुरमें श्रीयुत पं० कल्लापा भरमापा निटवेके पास मौजूद हैं। ६ न्यायचूलिका नामक ग्रन्थका भी उल्लेख मिलता है कि वह अकलंकदेवका बनाया हुआ हैं । ७ अकलंकस्तोत्र या अकलंकाष्टक भी उन्हींका बनाया हुआ बतलाया जाता है; परन्तु बहुतोंको इस विषयमें सन्देह है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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