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________________ ४३२ जैनहितैषी.ormmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm वादीभसिंहका उल्लेख अष्टसहस्रीकी उत्थानिकामें 'श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमांसाम् ' आदि वाक्य देकर किया है इन्हीं वादीभसिंहको जिनसेनस्वामीने 'वादिसिंह' कहकर स्मरण किया है कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्य परं पदम्। .. गमकत्वस्य पर्यन्तो वादीसिंहोर्च्यते न कैः॥ वीरसेन स्वामी भगवजिनसेनके गुरु थे। यद्यपि उनकी सैद्धा न्तिक रूपमें ही विशेष प्रसिद्धि है तथापि वे नैयायिक भी बड़े भारी हुए हैं । अष्टसहस्रीके अन्तमें उनका तार्किकरूपमें ही उल्लेख मिलता है । गुणभद्रने भी उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें कहा है: तत्र वित्रासिताशेषप्रवादिमदवारणः। वीरसेनापणीवीरसेनभट्टारको बभौ ॥ उसी समय परवादिमल्लदेव नामके भी एक तार्किक विद्वान् हुए हैं । उनका भी कृष्णराज या साहसतुंगके समक्ष उपस्थित होनेका उल्लेख मल्लिषेणप्रशस्तिमें मिलता है: घटवादघटाकोटिकोविदं कोविदां प्रवाक् । परवादिमल्लदेवो देव एव न संशयः॥ येनेयमात्मनामधेयनिरुक्तिरुक्ता नाम पृष्ठवन्तं कृष्णराज प्रतिगृहीतपक्षादितरः परः स्यात्तद्वादिनस्ते परिवादिन स्युः। तेषां हि मल्लः परवादिमल्लस्तन्नाम मन्नाम वदन्ति सन्तः॥ एक श्रीपाल नामके नामी विद्वान् भी उसी समय हुए हैं । जिनसेनस्वामीने इनका उल्लेख अकलङ्क और विद्यानन्दके ही साथ साथ किया है । जयधवलसिद्धान्तकी वीरसेनीया टीका इन्हीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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