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________________ भट्टाकलङ्कदेव । ४३१ सिद्धं सर्वजनप्रबोधजननं सद्योऽकलङ्काश्रयं विद्यानन्दसमन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् । निर्दोषं परमागमार्थविषयं प्रोक्तं प्रमालक्षणम् युक्त्या चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्द्धमानं जिनम् ॥ और विद्यानन्दने अपना अष्टसहस्रीग्रन्थ अकलंकदेवकी अष्टशती पर ही रचा है: श्रीमदकलङ्कशशधरविवृतां समन्तभद्रोक्तिमत्र संक्षेपात् । परमागमार्थविषयामष्टसहस्री प्रकाशयति ॥ इस तरह इन विद्वानोंका क्रम इस तरह बनता है:-अकलंकदेव, माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र । इनमें वृद्धत्वका मान अकलङ्कदेवको ही प्राप्त है। माणिक्यनन्दिको विद्यानन्दसे पहले कहनेका , कारण यह है कि उनके ग्रन्थमें विद्यानन्दका कहीं उल्लेख नहीं है और प्रभाचन्द्रने उन्हें अपना गुरु बताया है। __कुमारसेन और वादीभसिंह भी उसी समयके नामी विद्वानोंमेंसे हैं । कुमारसेनका उल्लेख विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके अन्तमें किया है और कहा है कि इस ग्रन्थकी वृद्धि उनकी सहायतासे हुई है। । इन्हीं कुमारसेनकी प्रशंसामें हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन कहते अकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥ ३८॥ मल्लिषेणप्रशस्तिमें उन्हें बहुत ही बड़ा प्रभावशाली विद्वान् बतलाया है: उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मुनिरस्तमाप । तत्रैव चित्रं जगदेकभानोस्तिष्ठत्यसौ तस्य तथाप्रकाशः॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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