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जैनहितैषी
करते हैं कि उन्होंने अकलंकदेवके चरणोंके समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था:बोधः कोप्यसमः समस्तविषयं प्राप्याकलङ्क पदं, जातस्तेन समस्तवस्तुविषयं व्याख्यायते तत्पदम् । किं न श्रीगणभृजिनेन्द्रपदतः प्राप्तप्रभावः स्वयं . . व्याख्यात्यप्रतिमं वचो जिनपतेः सर्वात्मभाषात्मकम् ॥
उन्होंने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें आचार्य माणिक्यनन्दिका उल्लेख किया है:
गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः । . नन्दताद्दूरतैकान्तरजो जैनमतार्णवः ॥३॥
और इन माणिक्यनन्दिको नमस्कार करते हुए अनन्तवीर्यने प्रमेयरत्नमालावृत्तिके प्रारंभमें कहा है:
अकलङ्कवचोम्भोधेरुद्दधे येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥ ___ अर्थात् जिसने अकलङ्कके शास्त्ररूपी समुद्रसे न्यायविद्यामृतका उद्धार किया उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार करता हूँ । इससे मालूम होता है कि माणिक्यनन्दि अकलंकदेवके ही समयमें हुए हैं। उन्हें पीछे इस कारण नहीं कह सकते कि प्रभाचन्द्रने जो अकलं. कके पास बैठकर पढे हैं माणिक्यनन्दिको गुरुरूपसे स्मरण किया है। . स्याद्वादविद्यापति विद्यानन्दि भी अकलंकदेवके समकालीन हैं। क्योंक प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें अकलंकके साथ साथ उनका भी स्मरण किया है:--
तका
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