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________________ भट्टाकलङ्कदेव | ४ प्रो० के. बी. पाठक और डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण आदि विद्वानोंने भी उन्हें ईस्वीसन् ७१० अर्थात् विक्रम संवत् ८०७ के लगभगका विद्वान् निश्चित किया है । समसामयिक विद्वान् और शिष्य । भगवान् अकलंकदेवके समयमें जैनविद्वानोंका ज्वार आया था । उस समय इतने अधिक विद्वान् विशेष करके नैयायिक विद्वान् हुए थे जितने कि अन्य किसी समयमें नहीं हुए । ज्यों ज्यों प्राचीन ग्रन्थोंकी तथा शिलालेखोंकी छानबीन की जाती है त्यों त्यों उस समयके अनेक बड़े बड़े विद्वानोंके नाम मालूम होते जाते हैं। अकलंकदेवके गुरु कौन थे, इसका पता नहीं लगता । यह हम | पहले ही लिख चुके हैं। हाँ, उनके पुष्पषेण नामक सतीर्थ या गुरुभाईका पता मल्लिषेणप्रशस्ति से लगता है: ४२९ श्रीपुष्पषेण मुनिरेव पदं महिनो देवंः स यस्य समभूत्स भवान्सधर्मा । श्रीविभ्रमस्य भवनं ननु पद्ममेव पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा ॥ इस पद्यके अभिप्रायसे जान पड़ता है कि वे बहुत बड़े विद्वान् होंगे । माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ये तीनों विद्वान् अकलंकदेवके समकालीन हैं । इनमें से प्रभाचन्द्र तो अपने न्यायकुमुदचन्द्रोदयके प्रथम अध्यायमें निम्नलिखित श्लोकसे यह प्रकट १ ' देव ' पद अकलङ्कदेवको सूचित करता है । इसका पूर्ववर्ती लोकसे स्पष्टीकरण होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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