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________________ भट्टाकलङ्कदेव । ४२७ परन्तु मेरे समान नाना शास्त्रोंका जाननेवाला पण्डित, कवि, वादीश्वर और वाग्मी इस कलिकालमें और कोई नहीं । __“ राजन, जिस तरह तू अपने शत्रुओंका अभिमान नष्ट करनेमें चतुर है उसी तरह मैं भी पृथ्वीके सारे पण्डितोंका मद उतार देनमें प्रसिद्ध हूँ। यदि ऐसा नहीं है तो तेरी सभामें जो अनेक बड़े बड़े विद्वान् मौजूद हैं उनमेंसे किसींकी शक्ति हो तो मुझसे बात करे। ___" मैंने राजा हिमशीतलकी सभामें जो सारे बौद्धोंको हराकर तारादेवीके घड़ेको फोड़ डाला, सो यह काम मैंने कुछ अहंकारके वशवर्ती होकर नहीं किया, मेरा उनसे द्वेष भी नहीं है; किन्तु नैरात्म्य ( आत्मा कोई चीज़ नहीं है क्षणस्थायी है ) मतके प्रचारसे लोग नष्ट हो रहे थे, उन पर मुझे दया आ गई और इसके कारण मैंने बौद्धोंको पराजित किया।" समयविचार। अकलंकदेवने यद्यपि अपने किसी ग्रन्थमें अपना समय प्रकट नहीं किया है। परन्तु कितने ही प्रमाणोंसे उनका समय निश्चित किया जासकता है १ उपर्युक्त मल्लिषेणप्रशस्तिके श्लोकोंसे जान पड़ता है कि वे साहसतुंगकी सभामें उपस्थित हुए थे और साहसतुंग राष्ट्रकूट या राठोरवंशका राजा था । इसका प्रसिद्ध नाम शुभतुंग या कृष्णराज था। विक्रमसंवत् ८४ ० (शकसंवत् ७०५) में जब जिनसेनका हरिवंश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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