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________________ ४२६ जैनहितैषी राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किं तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः। तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ॥ राजन्सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वत्ख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानां । नोचेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया । राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो बौद्धौघान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः॥ भावार्थ-जिसने घड़ेमें बैठकर गुप्त रूपसे शास्त्रार्थ करने तारादेवीको बौद्ध विद्वानोंके सहित परास्त किया । ( दूसरे चरण अर्थ स्पष्ट नहीं होता ) और जिसके चरणकमलोंकी रजमें र करके बौद्धोंने अपने दोषोंका प्रायश्चित्त किया, उस महात्मा ६ लंकदेवकी प्रशंसा कौन कर सकता है ? सुनते हैं उन्होंने एकबार अपने अनन्य साधारण गुणोंका तरह वर्णन किया था___" साहसतुंग ( शुभतुंग ) नरेश, यद्यपि सफेद छत्रके ध करनेवाले राजा बहुत हैं परन्तु तेरे समान रणविजयी और । राजा और नहीं । इसी तरह पण्डित तो और भी बहुतसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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