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भट्टाकलङ्कदेव ।
अर्हलि आचार्यने इन चारों संघोंकी स्थापना की थी । इस बातका उल्लेख और भी कई स्थानोंमें पाया जाता है ।
अकलङ्कदेव बड़े भारी नैयायिक और दार्शनिक विद्वान् हुए हैं । उनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि इस विषय में है कि उन्होंने अपने पाण्डित्यसे बौद्धविद्वानोंको पराजित करके जैनधर्मकी प्रतिष्ठा स्थापित की थी। उनका एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ राजा हिमशीतलकी सभामें हुआ था । हिमशीतल पल्लववंशका राजा था और उसकी राजधानी कांची ( कांजीवरम ) में थी । वह बौद्ध था । इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है । यह शास्त्रार्थ ७ दिन तक, किसीके मतसे १७ दिन तक और आराधना कथाकोशके कर्त्ता के मत से छह महीने तक हुआ था ! इसमें जैनधर्मको बड़ी भारी विजय प्राप्त हुई और राजा हिमशीतलकी आज्ञासे बौद्ध लोग सीलोन के ' कैंडी नामक नगरको निर्वासित कर दिये गये। विलसन साहबने भी इस कैंडीके निर्वासित होने की बातका उल्लेख किया है। बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ होनेकी तथा उनके जीतने की घटनाका उल्लेख श्रवणबेलगोलाकी मलिषेणप्रशस्तिमें इस प्रकार किया है:
तारा येन विनिर्जिता घटकुटीगूढावतारा समं बौद्धयों धृतपीडपीडितकुद्दग्देवार्थसेवाञ्जलिः । प्रायश्चित्तमिवांघिवारिजरजः स्नानं च यस्याचरदोषाणां सुगतः स कस्य विषयो देवाकलङ्कः कृती ॥ चूणिः । यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविभवोपवर्णनमाक
र्ण्यतेः
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