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जैनहितैषी
विस्तृत शिलालेख है । उससे मालूम होता है कि ये नन्दिसेन आदि चारों संघ अकलङ्कदेवके बाद हुए हैं । अभी तक अकलंकदेवसे पहलेके बने हुए जितने ग्रन्थ प्राप्य हुए हैंभगवतीआराधना, पद्मपुराण, जिनशतक ( समन्तभद्रकृत ), आदि तथा उनके समकालीन विद्वान् विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, माणिक्य- । नन्दि आदिके जितने ग्रन्थ हैं उनमें किसीमें भी इन संघोंका उल्लेख नहीं मिलता है । इससे भी मंगराजकविके कथन पर विश्वास करनेकी इच्छा होती है कि उस समय नन्दि देव आदि संघ नहीं थे और अकलङ्कदेव किसी एक संघके नहीं किन्तु सम्मिलित दिगम्बरजैनसंघके आचार्य थे। पर इस प्रश्न पर अभी बहुत कुछ छानवीन करनेकी आवश्यकता है। क्योंकि श्रुतावतार कथामें लिखा है कि अकलंकदेवसे बहुत पहले विक्रमकी प्रथम शताब्दिके लगभग
* ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरो भूदकलंकसूरिः । मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थाः प्रकाशिताः
यस्य वचोमयूखैः ॥ १८ ॥ तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षी दिवःपतिं नर्तुमिव प्रकृष्टां। तदन्वयोद्भूतमुनीश्वराणां बभूवुरित्थं भुवि संघभेदाः ॥ स योगिसंघश्चतुरः प्रभेदानासाद्यभूयानविरुद्धवृत्तान् । बभावयं श्रीभगवानजिनेन्द्रश्चतुर्मुखानीव मिथस्समानि ॥१९॥ देवनन्दिसिंहसनसंघभेववर्तिनां देशभेदतः प्रबोधभाजिदेवयोगिनाम् ।
वृत्ततः समस्ततो विरुद्धधर्मसेविनां . मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दिसंघ इत्यभूत् ॥ २०॥
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