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________________ भट्टाकलङ्कदेव । ४२१ रूपमें जितनी प्रसिद्धि है उससे कहीं अधिक प्रसिद्धि वाग्मी वक्ता या वादीके रूपमें थी । उनकी वक्तृत्वशक्ति या सभामोहिनी शक्तिकी उपमा दी जाती है । महाकवि वादिराजकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे सभामोहन करनेमें अंकलङ्कदेवके समान थे। प्रसिद्ध विद्वान् होनेके कारण अकलंकदेव · भट्टाकलङ्क' के नामसे प्रसिद्ध थे । भट्ट उनकी एक तरहकी पदवी थी । 'कवि' की पदवीसे भी वे विभपित थे । यह एक आदरणीय पदवी थी जो उस समय प्रसिद्ध और उत्तम लेखकोंको दी जाती थी। लघु समन्तभद्र और विद्यानन्दने उनको 'सकलतार्किकचक्रचडामाण' विशेषण देकर म्मरण किया है । अकलङ्कचन्द्रके नामसे भी उनकी प्रसिद्धि है। अकलङ्कदेवको कोई जिनदास नामक जैनब्राह्मण और जिनमती १ सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरूणामेकतः संगतानां प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः॥ ( Vide Ins No. 39. Nagar taluy by mr. Rice. ) २ कविशब्दकी परिभाषाके लिए देखो डा० भाण्डारकरकी १८८३-८४ की हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोंकी रिपोर्ट, पृष्ट १२२ । न्यायकुमुदचन्द्रोदयके कर्ता प्रभाचन्द्रको भी 'कवि' की पदवी प्राप्त थी, यद्यपि वे किसी काव्य के रचयिता ३ अकलङ्कचन्द्र नामके एक भटारक भी हो गये हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522806
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size11 MB
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